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________________ प्रमद-कक्ष की शिवानी आभारी हूँ प्रमद-कक्ष की उन प्रमदाओं का । उनकी केलि-तरंग ने जाने कब मुझे ऊपर उछाल कर, नंद्यावर्त के इस नवम् खण्ड पर ला बैठाया है । वहाँ वे सब इतनी पास थीं, और घिरी थीं, कि उन्हें सम्पूर्ण देखना और जानना सम्भव नहीं हो रहा था । इस ऊंचाई और दूरी पर से पाता हूँ कि वे अपनी जगह पर हैं, फिर भी समीपतम चली आई हैं। वहाँ उनमें से हर एक की इयत्ता और अस्मिता hot जानने की भी सुविधा नहीं थी । यहाँ उनमें से प्रत्येक के विलक्षण सौन्दर्य का समग्र दर्शन सम्भव है । मैं भी वहाँ उनके हाथ खण्ड-खण्ड ही तो आता था। किसी के हाथ केशों के साँप ही रह गये थे, तो उसकी मृदुल बाहु को डस लेते थे । कोई मेरी आंखों की काजल - रात में ही खो रहती थी। कोई मेरे कन्धे पर झूल कर ही आपा गंवा बैठती थी । कोई केवल वक्ष में बिलस रही, तो कोई कक्ष में बिछुड़ रही । 'यहाँ देखता हूँ कि मैं अखण्ड भोक्ता हूँ। और उनमें से हरेक पूरी सुलभ है । और वे सब मिल कर, समग्र मेरी हो रही हैं । जानना और देखना यहाँ अविकल है । सो विकलता की टीस नहीं है । दर्शन और ज्ञान यहाँ सम्यक् और समूचा है । सो भोग भी सम्यक् और समीचीन है। यही तो सम्यक् चर्या है। यानी सम्यक् चारित्र्य । और जब ये तीनों एकाग्र और संयुक्त हुए, तो सारी सुन्दरियों के साथ योग और मिलन नित्य और अखण्ड हो गया । यहाँ निषेध की बाधा नहीं, सभी कुछ आपो आप वैध हो गया है। श्रेय और प्रेय का विरोध समाप्त हो गया है। रक्त-मांस की बाधा से परे, यह सौन्दर्य और प्रीति का पूर्ण आलिंगन है ।' नवम् खण्ड का मेरा यह कक्ष अष्टदल कमल के आकार का है । इसके वातायन दसों दिशाओं पर खुलते हैं । हिमवान की अदृश्य चोटियों की सुनील हिमानी आभा, इसकी दीवारों और द्वारों पर खेलती रहती है । और दूरवर्ती पुष्पित बहुशाल वन की सुगन्ध सदा इस कक्ष में छायी रहती है । जिस लोकालय की परिक्रमा कर आया हूँ, उसकी ऊष्मा और उसके सुख-दुखों की यहाँ सतत सह अनुभूति होती रहती है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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