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________________ १२८ मनुष्य की पुकार ने एक अपूर्व संवेदन से मुझे ऊष्माविल कर दिया । अपने गर्म रक्त की धारा को, पृथ्वी के आरपार बहते देखना चाहता हूँ । उसमें खुल कर अवगाहना और तैरना चाहता हूँ । • और मैं लोक-यात्रा पर निकल पड़ा। आसपास के ग्रामों और सन्निवेशों तो रथ पर ही चला जाता था । पर सीम। और योजना से चलना मेरा स्वभाव नहीं । एक महायोजना मेरे भीतर से आपोआप प्रकाशित हो रही है; और मेरे पगतलों में चक्रवर्ती का चत्रचिह्न है या नहीं, सो तो नैमित्तिक जानें, पर चंक्रमण करते ही मेरे चरण मातृगर्भ से बाहर आये हैं । यह मैं जानता हूँ । सो रथ की क्या बिसात | मेरा सैन्धवी अश्व 'पवमान' ही इन दिनों मेरा एकमात्र संगी हो गया है। उसकी छलाँगों और टापों पर ही, जैसे मेरी यात्रा के भूगोल अपने आप खुलते चले जा रहे हैं । सुदूर उत्तर के इस छोर से, दक्षिण में सुवर्ण रेखा नदी को पार कर, सिंहभूमि तक यात्रा हुई है । पूर्व में चम्पा के महारण्य को पार कर, विक्रम• शिला के अंचलों में होकर, महानन्दा के तटों में विचरा हूँ । पश्चिम में केसपुत्त, कपासिय-वन होते हुए कर्मनाशा की प्रचण्ड लहरों पर घोड़ा फेंका है। नगरों से विशेष आकृष्ट न हो सका । ग्रामों के प्रांगण ही मुझे अधिक खींचते हैं। वहाँ निरावरण नग्न भूमि है । माँ के आँचल हैं। दूध और धान्यों से उफनाते हुए। वहाँ माटी भींजकर गर्भवती होती है । उसमें अंकुर फूटते हैं । जीवन के सोते लरजते हैं । सृष्टि की उत्पत्ति के वे उत्स हैं। उत्पादन की वह यज्ञभूमि है । कृषकों के आँगनों में अतिथि हुआ हूँ । अपनी भूमि के वे स्वामी हैं, पर उपज के नहीं। क्योंकि वाणिज्य की चतुराई से वे भिज्ञ नहीं । उनके श्रेणिक-जेट्ठ उनकी उपज को एकत्रित कर, वणिकों के सार्थवाहों को बेचते हैं । बदले में जो भी कार्षापण मिल जायें, उन्हीं से अन्य जीवन -साधन पा लेते हैं। थोड़ा पाकर ही संतुष्ट हो जाते हैं | अभाव नहीं, पर स्वभाव से ही दीन हो गये हैं वे । क्योंकि वे श्रमिक हैं, भोक्ता नहीं । भोक्ता हैं, चम्पा, राजगृही और वैशाली के वे श्रेष्ठि, जो उनकी धान्य- बालियों में से सुवर्ण मुद्राएँ निकाल कर, अपने तहखानों और भवनों में सुवर्ण-रत्नों के कोष जमा करते हैं । भोक्ता हैं वे राजा, भूदेव और गण-राजा जो भूमि के श्रेष्ठ फलों से अपने वैभव-विलास की मदिराएँ खींचते हैं। कृषक-ग्राम में एक कृषक के आँगन में अतिथि हुआ था । महधिक वसन- अलंकार धारण नहीं करता हूँ। उन्हीं की तरह काष्ठ-पादुकाएँ पहनता हूँ । पर मेरा स्वरूप धोखा दे जाता है । सो कृषक परिवार देखकर ही, सम्भ्रमित चकित हो रहा। अपने सामने उनका यों छोटे पड़ जाना मुझे रुचा नहीं । नवल धान्य की-सी कोमल, लाल मोटी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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