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________________ प्रथम लोक- यात्रा प्रियकारिणी त्रिशला देवी सबकी मनभावनी हैं। सारे भरत खण्ड के शीर्षस्थ राज- अन्तःपुरों में उनकी बुआएँ, बहनें और भतीजियाँ बैठी हैं। सबकी सब इस मेले में आयी हैं । और वे उनसे इतनी घिरी हैं कि मैं स्वतंत्र छूट गया हूँ । पर उनके आदेश तले मेरी साल - सँभाल, जतन - उपचार में कोई कमी नहीं आ पायी है । कमी मेरी ही ओर से है, कि डेरे में मेरी सेवा के वे सारे स्नेहायोजन मुँह ताकते खड़े रह जाते हैं । उन्हें झेलने को वहाँ कोई नहीं होता । महार्घ शैया की हिमोज्ज्वल चाँदनी अछूती ही रह जाती है। इन देवोपम भोगों का भोक्ता ऐसा अभागा है, कि उन्हें भोगने को वह कभी उपस्थित ही नहीं रहता । जाने कहाँ भागा फिरता है । इस मेले में आकर लोक-जीवन की यह गंगा-जमुनी धारा जब से देखी है, मेरी चेतना केन्द्र में बन्दी नहीं रह पायी है । वर्तुल है, विस्तार है, तभी तो केन्द्र की सार्थकता है । विश्व-तत्व की जिज्ञासा ही अब तक मन में सर्वोपरि रही है । पर विश्व के विस्तार और वैविध्य से कट कर क्या तत्व अपने आप में ही कूटस्थ रह सकता है ? नहीं, वह वस्तु स्वरूप नहीं । वह सत्य नहीं । सत्ता परिणामी है, निरन्तर उसमें परिणाम उत्पन्न हो रहे हैं । वह ध्रुव और प्रवाही एक साथ है । परिणमन, परिणमन, परिणमन • यही क्या मेरा और सर्व का स्वभाव नहीं ? परिणमन है कि लोक का विस्तार संभव है, जीवन की लीला संभव है । जीवन जीवन जीवन • अनन्त जीवन, अविनाशी जीवन : और उसका ज्ञाता, द्रष्टा, स्रष्टा, भोक्ता मैं : अनन्त अविनाशी पुरुष, जीवनेश्वर, जिनेश्वर ! पिप्पली - कानन के मेले में समग्र लोकात्मा का दर्शन हुआ। लोक से मिलन हुआ । दिगन्तों तक फैली जनगण की जीवन धाराएँ मुझे बेतहाशा खींचने लगीं । मनुष्य : मानव की अनादिकालीन परम्परा । उसके संघर्षों और विजयों की अन्तहीन गाथा । मनुष्य से बढ़कर कुछ नहीं । मृत्यु की मझधारा में जो जीवन का महोत्सव रचता है । काल के कराल पाशों में, जो मुक्ति का खेल खेलता है । स्वर्ग और तैंतीस कोटि देवता जिसके लहुलुहान, सर्वजयी चरणों पर झुकते हैं।' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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