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उठाये अँगुलियों के दुलार घिरे रहते हैं । खीर का चम्मच, मोहन भोग का एक कौलिया, अथवा आम की एक फाँक भी, रक्त-स्पन्दनों और वक्षांचलों की ढँकी मिठास लेकर ही, मेरी जीभ और कण्ठ तक पहुँच पाते हैं । इतनी ममता, जतन, प्यार-दुलार, जहाँ हो, वहाँ भोजन स्वाभाविक ही अनावश्यक हो जाता है ।
इसी प्रकार रात शयन तक, इन उर्वशियों का यह उत्पलवन, जाने कितने ही सम्मोहन के कोशावरण मेरे तन-मन के अणु-अणु पर बुनता चला जाता है ।
विभिन्न देशों से आई हुई ये सुन्दरी कन्याएँ अपनी-अपनी लाक्षणिक विशेषताएँ भी रखती हैं । और हर एक अपना कोई अलग ढंग का उपहार भी मेरे लिए सँजोये रहती हैं। मसलन कौशाम्बी की दो राजबालाएँ, अपने साथ वत्सराज उदयन की लोक-विख्यात कुंजर - विमोहिनी वीणा, तथा महारानी वासवदत्ता की घोषा वीणा की नागदन्त से निर्मित अनुकृतियाँ साथ लाई हैं । सवेरे और रात की संगीत-सभा में ये क्रम-क्रम से इनका वादन करती हुई, विन्ध्यारण्य के हस्ति-वनों का दृश्य साकार कर देती हैं। इनकी इस विद्या ने सचमुच ही मुझे मुग्ध किया है । मदनेश्वरी का उदयन-वीणा वादन मेरे मन के मातंग को वशीभूत कर सका या नहीं, सो तो वही जाने, किन्तु इरावती के घोषा - वादन पर, मैंने सिन्धु की उन्मत्त लहरों को स्तंभित होते देखा है ।
हमारी वैशाली से भी कुछ राजकुलों की लड़कियाँ आई हैं। उन्होंने विशाला की नगर-वधु आम्रपाली से नवनूतन जूड़े और वेणियाँ बाँधने की कला सीखी है । दिन में जाने कितनी बार वे निर-निराले केश विन्यासों में सजी दिखाई पड़ती हैं । चलो, इस बहाने देवी आम्रपाली की नर्तन कुशल उँगलियों का केश - कौशल तो देखा। हर चीज़ का हर बार नया रूप, मुझे तो प्रिय ही लगता है । हर नये पल ऐसा लगता है कि पिछली लड़की नहीं रही, नयी आ गयी है । इससे विगत पर्याय का मोह भंग होता है, और चिर नूतन में मुक्ति की अनुभूति होती है ।
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सुदूर दक्षिणावर्त के अरुणाचलम् से आयी है वैनतेयी । चुप्पी लड़की है। लाज का लोच उसमें देखते ही बनता है दूर द्वारपक्ष में आधी ओझल -सी खड़ी रह कर, अपलक नयन देखती रहती है। कई बार लगा है, उसकी चितवन में रक्तवेध करने की सामर्थ्य है । अनंग देवता तब चोर की तरह, भीतर घुस कर आक्रमण नहीं करते: अपने सच्चे रूप में नग्न और मूर्त सामने आ जाते हैं । उनका आक्रमण अनायास समर्पण हो उठता है । यह विचित्र कन्या, जाने कहाँ से कोई ऐसा रत्न-दर्पण पा गयी है, जिसमें देखो तो वस्त्राभूषणों से परे अपना निरावरण स्वरूप सामने आ जाता है । 'मुझे दर्पण थमा कर, पैरों के पास बैठी, नमित नयन, कालीन कुरेदती रहती है । एकदम निस्पृह । फिर भी जाने क्या पा जाती
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