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________________ १०९ कब कोई जघन पुण्डरीक-सा सरक आया है, पता ही नहीं चलता है। पीठ तले उद्भिन्नायमान कमल - कोरक मुझे उठाते से लगते हैं। कन्धों पर और मुख के आसपास, कुन्तल - पाशों के सुगन्धित जामुनी बादल घिरे होते हैं । उठता नहीं हूँ, मानो उठाया जाता हूँ। और पगतलियाँ, फर्श पर नहीं, कई बिछी हथेलियों के पद्मकोशों पर ही उतर पाती हैं। , 'स्नानागार तक का एकान्त नसीब नहीं रहा । आसपास कंकण-रणित कई हाथ सुगन्ध-जलों के कलश लिये प्रस्तुत होते हैं। एक के बाद एक जाने कितने सुगन्ध-चूर्णों और उपटनों का लेपन और प्रक्षालन सहना होता है। और फिर एक नहीं, जाने कितने करतलों के मर्दन, दबाव और सुख-स्पर्श पीड़न मेरे अंग-अंग को आक्रान्त कर लेते हैं । अवन्ती कन्या मादिनी ने मेरे केश प्रक्षालन का एकान्त अधिकार प्राप्त कर लिया है । छज्जे पर ईषत् बंकिम ग्रीवा के साथ झुकी कपोती की तरह, उसका नीलकान्ति मुख मेरे कन्धे पर झुका होता है : कभी उसकी चिबुक रह-रह कर मेरे कपोल पर टिक जाती है । मेरे केशों के गुंजल्कों को वह अपनी तन्वी कलाइयों पर लपेट कर मुझे और सबको दिखाती हुई चपल हास्य के साथ कहती है : : 'बड़े प्रतापी हैं हमारे वर्द्धमान कुमार ! देखो न, माथे के कुन्तलों में सँपलियों को पाले हुए हैं । हाय, क्या करूँ, ये काली कुटिल नागिनियाँ, मेरी बाहुओं को हँसे ले रही हैं । और बहुत ही दर्दीली टीस से कराहती हुई, वह मेरा केशराग करके मेरी अलकों को, कटि - मेखला की सूक्ष्म घंटियों के मोहक ताल पर संवारती है। और फिर जाने कितनी फुलैल - मंजूषाओं की शीशियों से अनेक अविजानित देशों के फूलों की सुगन्धे, हौले-हौले कई अंगुलि स्पर्शो के साथ मेरी रोमालियों में सिंचित की जाती हैं 1 उसके बाद इन्द्रधनुषी नीहारिकाओं जैसे कई हलके फेनिल अंशुकों के उत्तरीय और कौशेय मेरे चारों ओर होड़ मचाने लगते हैं । अन्तर्वासक पीताम्बर का मान तो मैं रख लेता हूँ, पर पुष्करवर - द्वीप के मुक्ताहार और उत्तरासंग मेरे वक्ष और कन्धों को नहीं जीत पाते हैं । 'मेरे केशों के कुटिल नाग उछल कर मणि-बन्धों को दूर फेंक देते हैं। हर बार किन्हीं नाजुक उँगलियों से बाँधे जाने पर, फिर-फिर tra afr-मुक्ता की लड़ियाँ उछल कर लौट पड़ती हैं, तो उन्हें झेलने को कई-कई पीले कमलों-सी अंजुलियाँ एक साथ मचल पड़ती हैं । विपुल और विविध व्यंजनों से सजे भोजन के सुवर्ण थाल, और मेरे उदर की जठराग्नि के बीच भी कई जतन करती ममताली बाँहों, कोहनियों, और कौलिया Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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