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कब कोई जघन पुण्डरीक-सा सरक आया है, पता ही नहीं चलता है। पीठ तले उद्भिन्नायमान कमल - कोरक मुझे उठाते से लगते हैं। कन्धों पर और मुख के आसपास, कुन्तल - पाशों के सुगन्धित जामुनी बादल घिरे होते हैं । उठता नहीं हूँ, मानो उठाया जाता हूँ। और पगतलियाँ, फर्श पर नहीं, कई बिछी हथेलियों के पद्मकोशों पर ही उतर पाती हैं।
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'स्नानागार तक का एकान्त नसीब नहीं रहा । आसपास कंकण-रणित कई हाथ सुगन्ध-जलों के कलश लिये प्रस्तुत होते हैं। एक के बाद एक जाने कितने सुगन्ध-चूर्णों और उपटनों का लेपन और प्रक्षालन सहना होता है। और फिर एक नहीं, जाने कितने करतलों के मर्दन, दबाव और सुख-स्पर्श पीड़न मेरे अंग-अंग को आक्रान्त कर लेते हैं । अवन्ती कन्या मादिनी ने मेरे केश प्रक्षालन का एकान्त अधिकार प्राप्त कर लिया है । छज्जे पर ईषत् बंकिम ग्रीवा के साथ झुकी कपोती की तरह, उसका नीलकान्ति मुख मेरे कन्धे पर झुका होता है : कभी उसकी चिबुक रह-रह कर मेरे कपोल पर टिक जाती है । मेरे केशों के गुंजल्कों को वह अपनी तन्वी कलाइयों पर लपेट कर मुझे और सबको दिखाती हुई चपल हास्य के साथ कहती है :
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'बड़े प्रतापी हैं हमारे वर्द्धमान कुमार ! देखो न, माथे के कुन्तलों में सँपलियों को पाले हुए हैं । हाय, क्या करूँ, ये काली कुटिल नागिनियाँ, मेरी बाहुओं को हँसे ले रही हैं ।
और बहुत ही दर्दीली टीस से कराहती हुई, वह मेरा केशराग करके मेरी अलकों को, कटि - मेखला की सूक्ष्म घंटियों के मोहक ताल पर संवारती है। और फिर जाने कितनी फुलैल - मंजूषाओं की शीशियों से अनेक अविजानित देशों के फूलों की सुगन्धे, हौले-हौले कई अंगुलि स्पर्शो के साथ मेरी रोमालियों में सिंचित की जाती
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उसके बाद इन्द्रधनुषी नीहारिकाओं जैसे कई हलके फेनिल अंशुकों के उत्तरीय और कौशेय मेरे चारों ओर होड़ मचाने लगते हैं । अन्तर्वासक पीताम्बर का मान तो मैं रख लेता हूँ, पर पुष्करवर - द्वीप के मुक्ताहार और उत्तरासंग मेरे वक्ष और कन्धों को नहीं जीत पाते हैं । 'मेरे केशों के कुटिल नाग उछल कर मणि-बन्धों को दूर फेंक देते हैं। हर बार किन्हीं नाजुक उँगलियों से बाँधे जाने पर, फिर-फिर tra afr-मुक्ता की लड़ियाँ उछल कर लौट पड़ती हैं, तो उन्हें झेलने को कई-कई पीले कमलों-सी अंजुलियाँ एक साथ मचल पड़ती हैं ।
विपुल और विविध व्यंजनों से सजे भोजन के सुवर्ण थाल, और मेरे उदर की जठराग्नि के बीच भी कई जतन करती ममताली बाँहों, कोहनियों, और कौलिया
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