SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 107
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उस चट्टान की कठोर नग्नता से गुंथ गया है। देह-स्पर्श का इससे बड़ा सुख और क्या हो सकता है । निरावरण पुरुष, नग्न प्रकृति की गोद में उत्संगित था। और कानों में अनुगंजित था सन्ध्या बेला का वह संवाद : 'माँ' - sss !''हाँ' - sss !' और मैं सो गया, ऐसी एक अवस्वापिनी निद्रा में, जिसका सुख 'नन्द्यावर्त' की मसृण सुख-सेजों में कभी अनुभव नहीं किया था। यह एक ऐसी निद्रा की अनुभूति थी, जो अन्ततः अपने में पूर्ण जागृति और संचेतना-सी लग रही थी। मैं अपने अहं को विस्मृत कर, मात्र, 'वह' हो गया था : जैसे एक प्रशान्त, असीम झील अपनी लहरों की ऊर्मिलता को देख रही थी। ऐसे ही रात के जाने कितने पहर बीत गये, पता ही न चला। सहसा ही एक दहाड़ के वज्र-निनाद से, पर्वत की गुफाओं और शिखरों के मर्मान्तर थर्रा उठे। मैं चौंक कर उठ बैठा। अंधियारी फट रही थी : और उसमें उजियाली का मुख झाँकने लगा था। हवा में कस्तूरी-सी महक रही थी। पर्वत-सांकलों के गहरावों में झरनों के गभीर घोष गूंज रहे थे। ___ मैं अपने बावजूद पर्वत-ढालों की ओर खिंचता चला गया, दौड़ता चला गया। और लगा कि मेरी छलांगों में शृंग लिपटते जा रहे हैं । कुछ सरणियों का आरोहण कर, ऊपर आया, और लौट कर देखा तो पूर्वाचल पर ऊषा फूट रही थी। हिरण्यगर्भा ऊषा। · · 'कि फिर एक रुद्रंकरी चिंघाड़ से भूगर्भ थर्राने लगे। मैं एक शिखर की चट्टान पर सन्नद्ध और ऊर्ध्व बाहु खड़ा रह गया। कि ऊपर की श्रेणि-गुफा में से एक प्रलम्बाकार सिंह औचक ही झपट पड़ा। ठीक मेरे सम्मुख होकर वह काली धारियों वाला केशरिया अष्टापद लपलपाती जिव्हा के साथ प्राणहारी गर्जन करने लगा। उसकी आँखों में ज्वालाएँ झगर-झगर कर रही थीं। उसकी अयाल में मणियाँ झलमला रही थीं। उसकी दहाड़ में ललकार थी, चुनौती थी, मन के बेटे को। मनुष्य मात्र को। उसके साम्राज्य की अबाध बीहड़ता और रहस्यमयता को भेद कर, जो पुरुष आज यहाँ चला आया है, उससे महाकालवन का चक्रवर्ती यह अष्टापद बहुत कुपित हो गया है। ____ मैं अविचल, उन्नीत, ऊर्ध्व-बाहु वैसा ही खड़ा रहा। पर मैं खुला था, मैं समर्पित था। मैं उसकी विकराल डाढ़ों पर चढ़ कर बहुत प्यार से खेलना चाहता था। उसके उस दुर्द्धर्ष क्रोध पर सच ही मेरे हृदय में दुलार उमड़ रहा था। मेरी देह उसके दंशों के चुम्बनों के लिये जैसे उत्कंटित हो रही थी। वह आये मेरे भीतर, मैं प्रत्याक्रमण नहीं करूंगा। प्रतिक्रमण करूँगा। अप्रतिरुद्ध अपने में खुलता चला जाऊंगा। मेरा रक्त उसके ओठों पर होकर बहेगा। मैंने कहा : Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy