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10 जनवरी 2011 जिनवाणी 99
जैन साधना में सद्गुरु का महत्त्व
प्रोफेसर पुष्पलता जैन
जैन सन्तों एवं कवियों ने विशाल वाङ्मय की रचना की है। भक्तिकाल में कुशललाभ, मानसिंह, बनारसीदास, द्यानतराय, सहजकीर्ति, पांडे हेमराज, रूपचन्द, आनन्दघन, दौलतराम, भूधरदास, बुधजन, समयसुन्दर आदि अनेक जैन कवियों ने अपने काव्यों में गुरु-गुणगान भी किया है। उसे ही प्रस्तुत आलेख में प्रो. पुष्पलता जैन ने संयोजित किया है। -सम्पादक
परमात्म-पद की प्राप्ति के लिए साधना एक अपरिहार्य तत्त्व है। जैन-जैनेतर साधकों ने अपनेअपने ढंग से उसकी आराधना की है। यहाँ हम हिन्दी जैन साहित्य के आधार पर जैन साधना में सद्गुरु की कितनी आवश्यकता होती है, इस तथ्य पर प्रकाश डालेंगे।
जैन साधना में सद्गुरु प्राप्ति का विशेष महत्त्व है। साधना में सद्गुरु का स्थान वही है जो अर्हन्त का है। जैन साधकों ने अर्हन्त-तीर्थंकर, आचार्य, उपाध्याय और साधु को सद्गुरु मानकर उनकी उपासना, स्तुति और भक्ति की है। मोहादिक कर्मों के बने रहने के कारण वह 'बड़े भागनि' से हो पाती है। कुशललाभ ने गुरु श्री पूज्यवाहण के उपदेशों को कोकिल-कामिनी के गीतों में, मयूरों की थिरकन में और चकोरों के पुलकित नयनों में देखा। उनके ध्यान में स्नान करते ही शीतल पवन की लहरें चलने लगती हैं सकल जगत् सुपथ की सुगन्ध से महकने लगता है, सातों क्षेत्र सुधर्म से आपूर हो जाता है। ऐसे गुरु के प्रसाद की उपलब्धि यदि हो सके तो शाश्वत सुख प्राप्त होने में कोई बाधा नहीं होगी
"सदा गुरु ध्यान स्नानलहरि शीतल वहई रे। कीर्ति सुजस विसाल सकल जग मह महइ रे। साते क्षेत्र सुठाम सुधर्मह नीपजई रे।
श्री गुरु पाय प्रसाद सदा सुख संपजई रे।।' मानसिंह ने क्षुल्लक कुमार चौपइ (सं. 1670) में सद्गुरु की संगति को मोक्षप्राप्ति का कारण माना है। उनका कहना है
श्री सदगुरु पद जुग नमी, सरसति ध्यान धरेसु, शुल्लक कुमार सुसाधुना, गुण संग्रहण करे ।
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