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________________ सम्पादकीय गुरु की महत्ता विश्व में अनादिकाल से रही है। भारतीय परम्परा में गुरु के दो रूप रहे हैं- 1. लौकिक-विद्या गुरु और 2. अध्यात्म - विद्या गुरु । प्राचीनकाल में लौकिक विद्या सिखाने के लिए गुरुकुल प्रचलित रहे, जहाँ विशेष वर्ग के साथ राजकुमारों को भी ऋषियों द्वारा शिक्षण दिया जाता था । बाद में पौशाल के माध्यम से और अब पाठशालाओं, विद्यालयों, महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों के माध्यम से लौकिक विद्या का वितरण किया जा रहा है। अनेक संस्थाएँ निजी तौर पर भी आभियान्त्रिकी, प्रबन्धन, लेखांकन, बैंकिंग, चिकित्सा, पर्यावरण आदि विषयों का अध्यापन कराती हैं। यह लौकिक विद्या आज खूब विकसित हो रही है। सूचना तकनीक, अन्तरिक्ष अनुसन्धान, चिकित्सा, मनोरंजन आदि के क्षेत्र में विशेष तरक्की हुई है। कम्प्यूटर एवं इण्टरनेट ने दुनियाँ का नया स्वरूप प्रकट किया है। लौकिक ज्ञान-विज्ञान के नये आयाम प्रकट हो रहे हैं। व्यक्ति कार्यों को अधिक सुगमता से तथा उत्कृष्टता से सम्पन्न करने में सक्षम हुआ है। इससे आजीविका के साधन भी बढ़े हैं तथा भोगोपभोग के नूतन आयाम भी सामने आये हैं। 10 जनवरी 2011 जिनवाणी 9 लौकिक विद्या की एक सीमा है। वह मनुष्य को आजीविका एवं भोगोपभोग की सामग्री उपलब्ध कराने के साथ बौद्धिक विकास भी करती है, किन्तु व्यक्ति को आत्यन्तिक रूप से दुःखमुक्त नहीं बना पाती। प्राणिमात्र के प्रति आत्मतुल्यता का भाव उत्पन्न करने के साथ संवेदनशीलता का विकास व्यक्ति में अध्यात्मविद्या ही उत्पन्न करती है। अध्यात्मविद्या में मनुष्य के आन्तरिक दृष्टिकोण का परिवर्तन करने का वह सामर्थ्य है जिससे व्यक्ति दुःख के निवारण में सक्षम हो जाता है । यह विद्या व्यक्ति को राग से विराग की ओर, भोग से योग की ओर, विषमता से समता की ओर, विभाव से स्वभाव की ओर, तनाव से शान्ति की ओर, प्रमाद 'अप्रमाद की ओर, भय से निर्भयता की ओर ले जाती है। इस विद्या को प्राप्त व्यक्ति बाह्य वस्तुओं के अभाव में भी भीतरी आनन्द से सरोबार होने की दृष्टि प्राप्त कर लेता है। अपमान और सम्मान में, दुःख और सुख में वह जीवन-मूल्यों से विचलित नहीं होता । स्वाध्याय, सेवा, ध्यान, तप, जप, इन्द्रिय-निग्रह आदि के माध्यम से वह आत्म-विजय के मार्ग पर अग्रसर होता है। काम, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष आदि आभ्यन्तर शत्रु उससे परास्त होने लगते हैं। इस अध्यात्म-विद्या का रसास्वादन व्यक्ति को बहिरात्मा से अन्तरात्मा बना देता है तथा वह पूर्णतः दुःखमुक्त होकर परमात्मा बनने की योग्यता प्राप्त कर लेता है। अध्यात्म-विद्या गुरु ही वस्तुतः प्रमुख गुरु है । गुरु का मुख्यार्थ उसी में घटित होता है। गुरु शब्द में 'गु' अंधकार का तथा 'रु' प्रकाश का वाचक है। अर्थात् जो व्यक्ति को अज्ञान अंधकार से ज्ञानप्रकाश की ओर लाता है वह गुरु है । गुरु व्यक्ति भी है और तत्त्व भी । गुरु जो ज्ञान देता है वस्तुतः उसी से Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003844
Book TitleJinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Others
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2011
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size8 MB
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