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जिनवाणी
10 जनवरी 2011 अपने निर्झर के अमृत से, उजड़े उपवन सरसाते हो।। तेरा अन्तर्वास सुवासित है, माया की कोई गन्ध नहीं। चैतन्य जगत् के चित्तरंजन जड़ से तेरा अनुबन्ध नहीं।। सार्थक है मुझको शरण तेरी, गुरुवर मुझको दो अन्तर्बल। बस ज्ञाता-द्रष्टा बन जाऊँ, मिल जाये अब उत्तम मंगल ।। संवर से आस्रव को रोकूँ, कर्मों का आना बन्द हुए। जब भेद-ज्ञान की आँख मिले, तप से कर्मों का अन्त हुए।। स्वाध्याय करूँ मैं तन्मय हो, उस आत्म-तत्त्व के चिंतन का। फिर पा जाऊँ मैं रत्नत्रयी, सच्चा पथ मोक्ष निकेतन का ।। मैं राग-द्वेष को दग्ध करूँ, निज आत्मतत्त्व को पा जाऊँ। फिर सहचर होगी मुक्ति रमा, आनन्द भवन में आ जाऊँ ।। अन्तर की दाह मिटाने को, तुम गुरुवर हो मेरे चंदन । अतएव झुके तव चरणों में, मेरे भाव-भरे सारे वंदन ।। -14, वरदान अपार्टमेन्ट्स, 64, इन्द्रप्रस्थ एक्सटेंशन, दिल्ली-110092
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