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________________ 72 10 जनवरी 2011 जिनवाणी दर्शनार्थ पहुँचा। आचार्यश्री और अन्य सन्तों ने मुझे सराहा कि आखिरी समय में मैंने अपने पिताजी को उनकी तीव्र अभिलाषा के अनुसार संलेखना - संथारा दिलवाकर उनको धर्म-ध्यान में सहयोग दिया । मेरी पुत्रवधू रश्मि सुराणा ने पहली बार आचार्यश्री के दर्शन किये और उनसे गुरु आम्ना ग्रहण की। आचार्यश्री ने बड़े सुन्दर ढंग से संक्षिप्त में सुदेव, सुगुरु और सुधर्म का सही स्वरूप और महत्त्व बताया। करणीय और अकरणीय का बोध कराया। हम सबने सुना, बहुत अच्छा लगा, मन में धारण किया। तब से जब भी आचार्यश्री की सेवा में गया और कभी किसी को उन्हें समकित पाठ सुनाते हुए देखा तो मुझे भी ध्यान से सुनकर आनन्द की अनुभूति करता हूँ । (7) तत्त्वचिन्तक श्री प्रमोद मुनि जी को मैं उनकी दीक्षा के पहले से ही जानता हूँ। श्री प्रमोद मुनि जी ने मेरी कुछ विशेष खबर ली। कुछ इस अन्दाज में बोले - “आपके पिताजी तो हम सब छोटे सन्तों का भी खयाल रखते थे। आप उनके सुपुत्र हो और सन्त - सन्निधि, स्वाध्याय आदि से वंचित रहते हैं। एक नियम बना लीजिए, गुरु- सन्निधि का लाभ लेकर आगे बढ़ेगें ।” उनके कहने का अन्दाज़ और माधुर्य ही कुछ ऐसा था कि मैं मना नहीं कर सका। फिर उन्होंने पूछा - "सामायिक तो करते ही होंगे।” मैंने कहा - "नहीं, वकालात में ही इतना व्यस्त रहता हूँ कि फुर्सत ही नहीं मिलती । " नजदीक ही एक श्रावक बैठा था। उस श्रावक ने उपाध्याय अमर मुनि जी की पुस्तक 'सामायिक सूत्र' मेरे हाथ में थमा दी। प्रमोद मुनि मुझे "आप यह पुस्तक अवश्य पढ़ लेना । जब भी आचार्य श्री के दर्शन का अवसर मिले तब यदि कोई शंका हो तो उसका समाधान कर लेना । " (9) आचार्यश्री का सौम्य चेहरा और स्नेहसिक्त मधुर मुस्कान प्रभावित करती थी, फिर भी उनसे ज्यादा मैं बात करने का साहस नहीं होता था । प्रमोद मुनि जी में अनूठी आत्मीयता और चुम्बकीय आकर्षण था । तो प्रभावित हुआ ही; मेरी धर्मपत्नी लीलावती, सुपुत्र डॉ. विनोद और बहूरानी रश्मि, सभी प्रभावित हुए। उनकी प्रेरणा से 'सामायिक सूत्र' पुस्तक मैंने पढ़ डाली । अच्छी लगी, दुबारा पढ़ी। सन्तोष नहीं हुआ, तीसरी बार पढ़ी। अन्तर्मन में लगा कि सामायिक जरूर करनी चाहिये । (10) मुम्बई चातुर्मास के बाद आचार्यश्री पूना पधारे। वहाँ कुछ मुमुक्षुओं की दीक्षाएँ भी हुई थीं। मैं भी सपरिवार पूना पहुँचा। ‘सामायिक सूत्र' पुस्तक पढ़कर जिज्ञासाओं की सूची बनाई थी। प्रमोद मुनि जी से मैंने उन सबका सन्तोषप्रद समाधान पाया तथा रोज सामायिक करने का नियम भी ग्रहण किया। - (श्रावकरत्न श्री पी. शिखरमल जी सुराणा ने चार-पाँच वर्षों में ही अपने जीवन को गुरु- सान्निध्य, मार्गदर्शन एवं स्वाध्याय से आध्यात्मिकता की ओर मोड़ दिया है । वे समर्पण, भक्ति एवं व्रत नियमों के पालन में दृढ़ता के साथ आध्यात्मिक विकास करने में सन्नद्ध हैं। प्रतिक्रमण कण्ठस्थ करने के साथ उपवास, पौषध आदि की आराधना पूर्वक विकार - विजय के मार्ग पर सत्श्रावक के रूप में आप सन्नद्ध हैं। हमने उनके विस्तृत आलेख का प्रारम्भिक अंश ही यहाँ प्रकाशित किया है ।) -61-63, Dr. Radhakrashanan Road, Mylapur, Chennai - 04 For Personal and Private Use Only Jain Educationa International www.jainelibrary.org
SR No.003844
Book TitleJinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Others
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2011
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size8 MB
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