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जिनवाणी
| 10 जनवरी 2011 || अर्थ:- गुरु-पद उन्हें शोभा देता है जो चातुर्य-सम्पन्न हैं, विवेकी हैं, अध्यात्म-ज्ञान से युक्त हैं, पवित्र हैं तथा जिनका मन निर्विकार है।
___ शिष्य के प्रति समयोचित कठोरता का बर्ताव न करने वाले गुरु को वास्तविक गुरु कैसे माना जा सकता है? 'आत्मानुशासन' ग्रन्थ में कहा है
दोषान् कांश्चन तान् प्रवर्तकतया प्रच्छाद्य गच्छत्ययं, साधं तैः सहसा प्रियेद्यदि गुरुः पश्चात्करोत्येष किम् । तस्मान्मे ने गुरुर्गुरुर्गुरुतरान् कृत्वा लडूंश्च स्फुटं,
ब्रूते यः सततं समीक्ष्य निपुणं सोऽयं खलः सदगुरुः ।। अर्थ:-(अयं) यह (प्रवर्तकतया) प्रवर्तक होने के कारण (कांश्चन) किन्हीं (तान्) जाने-माने (दोषान्) काम क्रोधादि दोषों को (प्रच्छाद्य) छिपा कर (गच्छति) चलता है। (यदि) यदि (एषः) यह (सहसा) सहसा (तैः सार्धं) उनके साथ (म्रियेत्) मृत्यु को प्राप्त हो जाय, (पश्चात्) फिर (गुरुः) गुरु (किं) क्या (करोति) कर लेगा? (तस्मात्) इसलिये (मे) मेरा (गुरुः) गुरु (गुरुः) गुरु (न) नहीं है। (अयं) यह (यः) जो (खलः) दुर्जन (लघून) छोटे दोषों को (च) भी (निपुणं) निपुणता-पूर्वक (समीक्ष्य) देखकर (सततं) सदैव (गुरुतरान्) बढ़ा-चढ़ा (कृत्वा) कर (स्फुटं) स्पष्ट(ब्रूते) बोलता है, (सः) वह (सद्गुरुः) उत्तम गुरु है।
तात्पर्यः- जो गुरु मेरे दोष जानते हुए भी मुझसे छिपाता है, वह मुझमें उन दोषों का प्रवर्तन करता है। यदि मेरा मरण सदोष-अवस्था में हो जाए, तो गुरु मेरा कौनसा हित कर लेगा? ऐसे गुरु को मैं गुरु नहीं मानता, किन्तु जो दुष्ट मेरे सूक्ष्म-दोषों की भी बढ़ा-चढ़ा कर मेरी खुली आलोचना करके मुझे सदा सावधान रखता है, उसे मैं अपना श्रेष्ठ गुरु मानता हूँ।
शान्तिदेव ने तो यहाँ तक कहा है कि शत्रु ही हमारा श्रेष्ठ आध्यात्मिक गुरु है। ‘गुरु गीता' में (दत्तगुरु ने) त्याज्य गुरु का लक्षण इस श्लोक में दिया है
ज्ञानहीनो गुरुस्त्याज्यो मिथ्यावादी विडम्बकः ।
स्वविश्रान्तिं न जानाति परशान्तिं करोति किम्।। अर्थ:- वह गुरु त्याज्य है जो ज्ञानहीन है, असत्यवादी है और विडम्बना करने वाला है। जो स्वयं विश्रान्त होना नहीं जानता, वह अन्य को क्या शान्त करेगा?
यदि गुरु में स्वार्थ, ईर्ष्या, स्पर्धा, पक्षपात, दुर्वासना, कृत्रिमता आदि विकार हों, तो उनसे किसका हित संभव है? गुरुता एक महान् उत्तरदायित्व है। यदि दीक्षा का दान एवं आदान संघ-वृद्धि एवं नाम-बड़ाई के अर्थ हो, तो स्व-पर-कल्याण कैसे संभव है? दीक्षा मङ्गल-आचरण का मङ्गलाचरण है। शिष्य आत्म-समर्पण करता है, और गुरु उसका आत्मोत्थान करते हैं। दीक्षा का मूल उद्देश्य
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