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________________ | 10 जनवरी 2011 | जिनवाणी कर संयम धर्म से च्युत होने लगता है, तब गुरु उसे कुमार्ग से बचाकर पुनः मार्ग में स्थिर करता है। भगवान महावीर के समय में मुनि मेघकुमार का आख्यान आपने सुना होगा। मेघकुमार राजमहलों में पले एक राजकुमार थे। भगवान से प्रतिबोधित होकर उन्होंने मुनि जीवन अंगीकार कर लिया। मुनि बनने के पश्चात् प्रथम रात्रि में ही उन्होंने क्रम से अन्य मुनियों के साथ अपनी शय्या लगाई और सोने लगे। रात्रि के अन्धकार में अन्य मुनियों द्वारा कार्य हेतु आना-जाना होने पर उनको मुनि मेघ कुमार को लांघ कर जाना पड़ता था, जिससे उनके पैरों से मुनि मेघ को ठोकरें लगती रहती थीं। बार-बार यही होता देखकर मेघ मुनि सो न सके। वे विचार करने लगे कि जब मैं राजकुमार था तब ये ही मुनिगण मुझे मान-सम्मान देते थे और आज मेरी कोई परवाह न करते हुए मुझे ठोकरें लगाते हुए चल रहे हैं। वह रात, ऐसा विचारते-विचारते उसके लिये बड़े दुःख से बीती । उसने निश्चय कर लिया कि प्रातः होते ही वह भगवान से आज्ञा लेकर पुनः गृहस्थ जीवन में चला जायेगा। सवेरा होते ही वह भगवान् के पास पहुंचा और उनको वन्दन-नमन किया । भगवान् तो सर्वज्ञ थे। उन्होंने मेघ के बिना बोले ही उसके मन में चल रहे वैचारिक द्वन्द्व को उसे बता दिया। मेघ ने कहा कि यह सत्य है भगवन् !। तब भगवान ने उसे प्रतिबोध देते हुए कहा-“मेघ, रात्रि में केवल इतने से परीषह से घबरा कर तुम विचलित हो गये और इस उत्कृष्ट संयम को त्यागने का विचार कर बैठे। जरा अपने पूर्व भवों पर दृष्टिपात तो करो। अनन्त काल से तुम कितने भीषण नरक, निगोद आदि गतियों के दुःख को दीन बने झेल रहे थे। तुमने कितनी ही बार सर्दी, गर्मी आदि की पीड़ाएँ भोगी हैं। उनके सामने तो ये पीड़ाएँ नगण्य हैं, फिर भी तुम निराश हो गये? अब यह भव तुमको अनन्त पुण्यों के फलस्वरूप मिला है। मानव भव के अतिरिक्त अन्य किसी भव में अपने दुःखों का अन्त करना सम्भव नहीं होता है, उन्हें केवल भोगना ही होता है। मानव भव में ही तुम अपने पुरुषार्थ से दुःखों की परम्परा को सदैव के लिये नष्ट कर सकते हो। इस भव में भी समता धर्म को धारण कर अपना पुरुषार्थ प्रकट नहीं किया तो तुम्हारे दुःखों की यह परम्परा अनवरत चलती ही रहेगी। अतः संबोधि को प्राप्त कर, निर्मल संयम का पालन करके आत्म-कल्याण के मार्ग पर बढ़ोगे तो आनन्द का अखण्ड साम्राज्य तुम्हारा होगा। फिर न तो तुम्हारा जन्म होगा और न ही मरण । न तुम्हें सांसारिक सुख होगा और न ही दुःख । तुम उस शाश्वत धाम के वासी हो जाओगे जहाँ केवल आनन्द ही आनन्द होगा।मानवभव में आकर भी क्या तुम उसे प्राप्त करने का पुरुषार्थ नहीं करोगे?" भगवान से अपने पूर्व भवों का वृत्तान्त सुनकर मेघ का रोम-रोम कांप उठा। उसकी चेतना जगी और वह आत्मभाव में आ गया। प्रभु से क्षमा मांगता हुआ वह तत्काल पुनः मुनि धर्म में स्थिर हो गया और भगवान् के चरणों में संकल्प किया कि “हे प्रभो! आज से इन दो आंखों के अतिरिक्त मेरा सम्पूर्ण शरीर संत-सेवा में समर्पित करता हूँ।" भगवान् ने एक गुरु के रूप में संयम से च्युत हो रहे शिष्य को पुनः कल्याण मार्ग का पथिक बना दिया । गुरु से उचित समय पर बोध पाकर मुनि मेघ का संघर्ष घुल गया और उन्हें जीवन का उत्कर्ष मिल गया। भगवान् के अन्तरमन में केवल शिष्य के हित की उद्भावना थी। वे तो वीतराग थे, अतः शिष्य के प्रति उनमें किंचित् भी राग नहीं था। उन्होंने मेघकुमार की परेशानी के निराकरण के लिये न तो उसे अपने पास शयन करने के लिये कहा और न ही अन्य मुनियों को उपालम्भ ही दिया कि उन्होंने एक राजघराने से आये मेघ मुनि का ध्यान भी नहीं रखा । भगवान् चाहते तो मेघ के लिये अनुकूल वातावरण बना सकते थे। उन्हें तो पता था कि उस Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003844
Book TitleJinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Others
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2011
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size8 MB
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