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|| 10 जनवरी 2011 || जिनवाणी
405 स्वामी को यह सूचना देना चाहे कि 'श्रमण' पधारे हैं तो अग्निकाय की विराधना के कारण पूरे दिन के लिए वह घर अकल्पनीय (अग्राह्य) मानकर 'श्रमण' उस घर का आहार-पानी नहीं लेते। कई बार तो हमारे नादान श्रावक को यह भी कहते सुना है कि बापजी यह कॉल-बैल तो सैल की है आपको आहार-पानी लेने में ऐतराज क्यों? मगर वे यह नहीं जानते कि चाहे सैल हो या विद्युत अग्नि तो अग्नि
2. दूसरा रोग है देशी-विदेशी कुत्ते- कुछ श्रावक अपने घर की चौकीदारी हेतु देशी-विदेशी कुत्ते पालते हैं। स्वयं तो श्रावक होने के नाते माँस-मदिरा व अण्डे के त्यागी होते हैं, मगर कुत्ते को अण्डा, मांस आदि दूसरों के द्वारा खिलाया जाता है। ऐसी स्थिति में यदि 'श्रमण' का आगमन हो जाये और
घर-आँगन में कहीं मांस या अण्डे के अवशेष मिल जायें तो जैन श्रमण उस घर में प्रवेश नहीं करते। 3. तीसरा रोग है गैस का चूल्हा- प्राचीन काल से भारत में संयुक्त परिवार प्रथा चली आ रही थी। एक
ही परिवार में 30-30, 40-40 सदस्य रहते थे। ‘सादा जीवन उच्च विचार' उनकी जीवन शैली थी। उनका कहना था- 'मोटा खाओ, मोटा पहनो।' लकड़ी अथवा कोयले में भोजन बनाया जाता था। परिवार के सारे सदस्यों के भोजन करने के पश्चात् फुलकों की 'कुण्डी' पूरी भरी रहती थी, इसे वे अपने घर का शगुन मानते थे। खीच-दलिया तथा साग-भाजी की हाण्डिया चूल्हे की गरमागरम राख पर रखी रहती थीं, फलस्वरूप दिन के दूसरे प्रहर अथवा इसके पश्चात् भी हमारे निर्ग्रन्थ संत-सती मण्डल आहार-पानी के लिए अचानक पधारते तो भी उन्हें शुद्ध अचित्त आहार तथा प्रासुक जल सहज प्राप्त हो जाता था। हमारे श्रावक/श्राविकाएँ भी बड़े विवेकवान हुआ करते थे। इसके विपरीत आज का युग है विद्युत हीटर तथा गैस-चूल्हे का। हमारी श्राविकाएँ चूल्हा जलाने के लिए जरा भी श्रम करना नहीं चाहती। वर्तमान में चूल्हा, अंगीठी और स्टोव तो बच्चों के लिए कौतूक का विषय रह गए हैं। वर्तमान में गूंथा हुआ आटा फ्रीज में रखा रहता है, जब भी घर का कोई सदस्य भोजन के लिए आता है तो उसके लिए 4-5 गरमागरम फुलके बना दिये जाते हैं, तत्पश्चात् शेष
सामग्री फ्रीज में रख दी जाती है, फिर फुलकों की कुण्डी की आवश्यकता ही क्या? 4. चौथा रोग है रेफ्रीजरेटर (फ्रीज)- भोजन के पश्चात् साग-भाजी, दूध-दही, आटा आदि अचित्त
अथवा सचित्त फल एवं भोज्य सामग्री फ्रिज में रख दी जाती है। ऐसी स्थिति में यदि भाग्यवश सन्तसतियां आहार के लिए किसी श्रावक के घर पधार भी जायं तो मेरी बहिनें सकपका जाती हैं, भरे-पूरे परिवार में सब कुछ होते हुए भी मेरी बहिनें संत-साध्वीजी को क्या बहरावें। भले ही टॉफी या बिस्कुट की भावना भा लें, पर क्या इससे कभी किसी का पेट भरा है? इतना ही नहीं वर्तमान में तो अधिकतर टॉफी और बिस्कुट में भी अण्डे का रस आदि मिला होने के कारण वे जैन श्रमणों व श्रावकों को लिए सर्वथा निषिद्ध हैं।
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