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________________ 400 जिनवाणी | 10 जनवरी 2011 | नहीं है, किन्तु यदि आर्यिकायें वंदना करें तो श्रमण को उनके लिए 'समाधिरस्तु' या कर्मक्षयोऽस्तु' कहना चाहिए। श्रावक जब इनकी वन्दना करता है तो उन्हें सादर 'वन्दामि' शब्द बोलता है। आर्यिका और श्रमण संघ : परस्पर सम्बन्धों की मर्यादा ____ आचार-विषयक जैन आगम-साहित्य में श्रमण संघ को निर्दोष एवं सदा अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए अनेक दृष्टियों से स्त्रियों के संसर्ग से, चाहे वह आर्यिका भले ही हो, दूर रहने का विधान किया है। यही कारण है कि श्रमण संघ आरम्भ से अर्थात् प्राचीन काल से आज तक बिना किसी बाधा या अपवाद के अपनी अक्षुण्णता बनाये हुए है। श्रमणों और आर्यिकाओं का सम्बन्ध (परस्पर व्यवहार) धार्मिक कार्यों तक ही सीमित है। यदि आवश्यक हुआ तो कुछ आर्यिकाएँ एक साथ मिलकर श्रमण से धार्मिक शास्त्रों के अध्ययन, शंकासमाधान आदि कार्य कर सकती हैं, अकेले नहीं। अकेले श्रमण और आर्यिका को परस्पर बातचीत तक का निषेध है। कहा भी है कि तरुण श्रमण किसी भी तरुणी आर्यिका या अन्य किसी स्त्री से कथावार्तालाप न करे। यदि इसका उल्लंघन करेगा तो आज्ञाकोप, अनवस्था (मूल का ही विनाश), मिथ्यात्वाराधना, आत्मनाश और संयम-विराधना- इन पाप के हेतुभूत पाँच दोषों से दूषित होगा।" अध्ययन या शंका-समाधान आदि धार्मिक कार्य के लिए आर्यिकाएँ या स्त्रियाँ यदि श्रमण संघ आयें तो उस समय श्रमण को वहाँ अकेले नहीं ठहरना चाहिए और बिना प्रयोजन वार्तालाप नहीं करना चाहिए, किन्तु कदाचित् धर्मकार्य के प्रसंग में बोलना भी ठीक है। एक आर्यिका कुछ प्रश्नादि पूछे तो अकेला श्रमण उसका उत्तर न दे, अपितु कुछ श्रमणों के सामने उत्तर दे। यदि कोई आर्यिका अपनी पुस्तक अर्थात् आर्यिका गणिनी के साथ या उसे आगे करके कोई प्रश्न पूछे तब अकेले श्रमण उसका उत्तर दे सकता है अर्थात् मार्ग- प्रभावना की इच्छा रखते हुए प्रश्नोत्तरों आदि का प्रतिपादन करना चाहिए, अन्यथा नहीं। ___ आर्यिकाओं की वसतिका में श्रमणों को नहीं जाना, ठहरना चाहिए, वहाँ क्षणमात्र या कुछ समय तक की (अल्पकालिक) क्रियाएँ भी नहीं करनी चाहिए। अर्थात् वहाँ बैठना, लेटना, स्वाध्याय, आहार, भिक्षा-ग्रहण, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग एवं मलोत्सर्ग आदि क्रियाएँ पूर्णतः निषिद्ध हैं।" वृद्ध, तपस्वी, बहुश्रुत और जनमान्य (प्रामाणिक) श्रमण भी यदि आर्याजन (आर्यिका आदि) से संसर्ग रखता है तो वह लोकापवाद का भागी (लोगों की निन्दा का पात्र) बन जाता है। तब जो श्रमण अवस्था में तरुण हैं, बहुश्रुत भी नहीं हैं और न जो उत्कृष्ट तपस्वी और चारित्रवान् हैं वे आर्याजन के संसर्ग से लोकापवाद के भागी क्यों नहीं होंगे? अर्थात् अवश्य होंगे अतः यथासम्भव इनके संसर्ग से दूर रहकर अपनी संयम-साधना करनी चाहिए। आर्यिकायों के उपाश्रय में ठहरने वाला श्रमण लोकापवाद रूप व्यवहार-निन्दा तथा व्रतभंग रूप Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003844
Book TitleJinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Others
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2011
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size8 MB
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