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जिनवाणी
10 जनवरी 2011 स्थान पर तथा बिना फाटक वाले स्थान पर भी नहीं रहना चाहिए। जिस उपाश्रय के समीप गृहस्थ रहते हों वहाँ साधुओं को नहीं रहना चाहिए, किन्तु साध्वियाँ रह सकती हैं।"
वसतिकाओं में आर्यिकायें मात्सर्यभाव छोड़कर एक दूसरे के अनुकूल तथा एक दूसरे के रक्षण के अभिप्राय में पूर्ण तत्पर रहती हैं। रोष, वैर और मायाचार जैसे विकारों से रहित, लज्जा, मर्यादा और उभयकुल- पितृकुल, पतिकुल अथवा गुरुकुल के अनुरूप आचरण (क्रियाओं) द्वारा अपने चारित्र की रक्षा करती हुई रहती है। आर्यिकाओं में भय, रोष आदि दोषों का सर्वथा अभाव पाया जाता है। तभी तो ज्ञानार्णव में कहा है शम, शील और संयम से युक्त अपने वंश में तिलक के समान, श्रुत तथा सत्य से समन्वित ये नारियाँ (आर्यिकाएँ) धन्य हैं। समाचार : विहित एवं निषिद्ध
चरणानुयोग विषयक जैन साहित्य में श्रमण और आर्यिकाओं दोनों में समाचार (समाचारी) आदि प्रायः समान रूप से प्रतिपादित हैं।” मूलाचारकार ने इनके समाचार के विषय में कहा है कि आर्यिकाएँ अध्ययन, पुनरावृत्ति (पाठ करने), श्रवण-मनन, कथन, अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन, तप, विनय तथा संयम में नित्य ही उद्यत रहती हुई ज्ञानाभ्यास रूप उपयोग में सतत तत्पर रहती हैं तथा मन, वचन और कायरूप योग के शुभ अनुष्ठान से सदा युक्त रहती हुई अपनी दैनिक चर्या पूर्ण करती हैं।
किसी प्रयोजन के बिना परगृह चाहे वह श्रमणों की ही वसतिका क्यों न हो या गृहस्थों का घर क्यों न हो, वहाँ आर्यिकाओं का जाना निषिद्ध है। यदि भिक्षा, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय आदि विशेष ' प्रयोजन से वहाँ जाना आवश्यक हो तो गणिनी (महत्तरिका या प्रधान आर्यिका) से आज्ञा लेकर अन्य कुछ आर्यिकाओं के साथ मिलकर जा सकती है, अकेले नहीं।” स्व-पर स्थानों में दुःखार्त्त को देखकर रोना, अश्रुमोचन, स्नान (बालकों को स्नानादि कार्य) कराना, भोजन कराना, रसोई पकाना, सूत कातना तथा छह प्रकार का आरम्भ अर्थात् जीवघात की कारणभूत क्रियायें आर्यिकाओं के लिए पूर्णतः निषिद्ध हैं। संयतों के पैरों में मालिश करना, उनका प्रक्षालन करना, गीत गाना आदि कार्य पूर्णतः निषिद्ध हैं।"
असि, मषि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प और लेख- ये जीवघात के हेतुभूत छह प्रकार की आरम्भ क्रियाएँ हैं।" पानी लाना, पानी छानना (छेण), घर को साफ करके कूड़ा-कचरा उठाना, फेंकना, गोबर से लीपना, झाडू लगाना और दीवालों को साफ करना- ये जीवघात करने वाली छह प्रकार की आरंभ क्रियायें भी आर्यिकायें नहीं करतीं। मूलाचार के पिण्डशुद्धि अधिकार में आहार-सम्बन्धी उत्पादन के सोलह दोषों के अन्तर्गत धायकर्म, दूतकर्म आदि कार्य भी इनके लिए निषिद्ध हैं।
श्वेताम्बर परम्परा के गच्छाचारपइन्ना नामक प्रकीर्णक ग्रंथ में कहा है- जो आर्यिका गृहस्थ सम्बन्धी कार्य जैसे- सीना, बुनना, कढ़ाई आदि कार्य अपनी या दूसरे की तेल मालिश आदि कार्य करती है वह आर्यिका नहीं हो सकती। जिस गच्छ में आर्यिका गृहस्थ सम्बन्धी जकार, मकार आदि रूप
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