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जिनवाणी
10 जनवरी 2011 (2) जीवन-निर्वाह हेतु आवश्यक वस्त्र, पात्र, शय्या एवं आहार को ग्रहण करते हुए यतना व अहिंसा
का विवेक रखना, बयालीस दोष टालकर लेना और सैंतालीस दोष टालकर उपभोग करना एषणा
समिति कहलाती है। (3) पदार्थों को देखने, ग्रहण करने एवं उपभोग करने में शास्त्रीय विधि के अनुसार निर्दोषता का विचार
करके सम्यक् प्रवृत्ति करना ही एषणा समिति है। 2. समवायांग सूत्र में वागरित प्रवचन के आधार परः(1) समवायांग सूत्र के पाँचवें समवाय की टीका के अनुसार “निर्दोष आहार की गवेषणा करना एषणा
समिति कहलाती है।" (2) समवायांग सूत्र के आठवें समवाय की टीकानुसार भी ऊपर लिखे गये भाव ही वर्णित हैं।
इस प्रकार उपर्युक्त अर्थ और परिभाषाओं के परिप्रेक्ष्य में हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि-" आहार, उपधि, और शय्या की गवेषणा , ग्रहणैषणा और परिभोगैषणा (ग्रासैषणा)-उक्त तीनों की तीनतीन एषणाएँ हैं, उनकी विशुद्धि का अर्थात् उन तीनों सम्बन्धी दोषों से अदूषित, विशुद्ध आहार-पानी, रजोहरण, मुख वस्त्रिका आदि उपधि तथा शय्या के अन्तर्गत स्थान, पाट-पाटला आदि का ग्रहण करना ही एषणा समिति है।
‘एषणा' शब्द संस्कृत भाषा में एष्' धातु में युच् प्रत्यय लगकर निर्मित है। जिसका अर्थ हिन्दी, उर्दू भाषा में - इच्छा, अन्वेषण, छानबीन, खोज, तलाश, गमन, अभिलाषा के रूप में शब्द कोष में उपलब्ध होता है। यहाँ यह शब्द जैन वाङ्मय का परिभाषिक शब्द है जो साधक की भिक्षाचरी आदि के संदर्भ में तीर्थंकर भगवंत ने अपने मुखारविन्द से निसृत वाग्धारा तत्कालीन लोकभाषा में व्यवहृत किया है, जो गोचरी ग्रहण करने से पूर्व, ग्रहण करते समय और उसका उपभोग करते समय के नियमों के मूल शब्दों के साथ जुड़ा हुआ है।
साधक आत्माओं को संयमी-जीवन चलाने हेतु आहारादि की आवश्यकता होती है। यह आवश्यकता-पूर्ति निर्दोषता पूर्वक प्राप्त आहारादि से हो, यह साधु-साध्वी के लिए अनिवार्य है। आचारांग सूत्र अध्ययन 2, उद्देशक 5 में आहार परिज्ञा का अधिकार चलता है। उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन 2 की गाथा 28 के अनुसार साधु ‘परदत्त भोई' है। उन्हें आवश्यकता की प्रत्येक वस्तु याचना करके ही लेनी पड़ती है। इसके लिए वे सारे नियम एवं विधि-विधान आगम-शास्त्रों में अंकित एवं वर्णित किये गये हैं, जिनकी संयमी जीवन के लिए आवश्यकता होती है। उल्लिखित विधि-विधान अत्यंत निर्दोष हैं, जिनकी अनुपालना करने पर साधक को किंचित् मात्र भी दोष नहीं लगता।
एषणा समिति साधु-साध्वी की मार्ग-दर्शिका रूप है। वह वस्तु की याचना करने और उसे उपभोग में लाने की निर्दोष रीति बतलाती है। शरीर-विज्ञान के अनुसार शरीर में जठराग्नि रही हुई है। उसकी शान्ति हेतु आहार-पानी ग्रहण करना ही पड़ता है। इस अग्नि का क्षुधा वेदनीय कर्म से सीधा सम्बन्ध है।
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