________________
|| 10 जनवरी 2011 || जिनवाणी
383 प्रवृत्तियों को साधक जीवन में अपनाते हैं। स्वयं धर्माचरण में लीन रहते हुए, अन्य भावी आत्माओं को भी आत्मोत्थान की प्रेरणा कर जीवन को सार्थक बनाने हेतु सत्पुरुषार्थ करते हैं। वे सतत जागरूक रहते हैं कि आत्मा कषाय-भावों, योग की दुष्प्रवृत्तियों अथवा प्रमादवश शुभ अध्यवसायों से हटकर अशुभ की ओर प्रवृत्त न हो जाये। ___ साधक आत्मा को शरीर विषयक दैनिक एवं कई आवश्यक कृत्य संपादित करने होते हैं, फलस्वरूप किन्हीं भी कारणों से आत्मा पाप-कार्यों की ओर प्रवृत्त हो अशुभ कर्मों का बंध कर लेती है। इस कारण वीतराग भगवंतों ने महान् चारित्र आत्माओं का संयमी जीवन ऐसा बताया है जो किन्हीं दोषों को लगाये बिना शुभ अध्यवसायों की उपस्थिति में अशुभ कर्मों की निर्जरा एवं शुभ कर्मों का उपार्जन कर अंततोगत्वा सभी शुभाशुभ कर्मों से मुक्त होकर निर्बाध गति से चरम एवं परम लक्ष्य की प्राप्ति में सक्षम बन सके एवं प्राप्त जीवन को सार्थकता प्रदान कर सके। यही परम उपकार की भावना वीतराग भगवंतों की साधक आत्माओं के प्रति रही है। अतः इन्हीं शुभ भावनाओं का मूर्त रूप हमें आगमशास्त्रों का अनुशीलन करने पर दृग्गोचर होता है। ____साधक आत्माएँ (साधु-साध्वी) अपने संयमी-जीवन को निष्पाप-निर्दोष रूप में किस प्रकार संरक्षित सुरक्षित रखते हुए आत्म-लक्ष्य की प्राप्ति में सफल हो सकें, इस हेतु वीतराग भगवंतों ने विशेष रूप में जिनका शासन प्रवर्तमान है, ने अपनी जन-कल्याण कारिणी वागरणा में प्रवृत्ति एवं निवृत्ति रूप नियमों, मर्यादाओं का कथन किया जिसके आलोक में साधक आत्माएँ शुभ की ओर प्रवृत्ति तथा अशुभ से निवृत्ति (दूर हटना) करते हुए अपनी आत्मा को ऊर्ध्वगामी बनाने में सक्षम होती हैं। आगमवाणी में वर्णित प्रवृत्ति-निवृत्ति रूप नियम-उपनियम समिति-गुप्ति के नाम से आख्यायित हैं- जिन्हें अपरनाम अष्ट प्रवचन माता के नाम से भी जाना जाता है। प्रतिपाद्य विषय की पूर्णता एवं पुष्टि हेतु तद्विषयक संक्षिप्त परिचय यहाँ प्रासंगिक है।
पाँच समिति और तीन गुप्ति की मर्यादा का पालक साधक समितियों का पालन करता हुआ शीघ्र पूर्व संचित कर्मों को निर्जरित कर उन कर्मों को क्षय करता है तथा गुप्ति के द्वारा नवीन आगन्तुक कर्मों का निरोध करता हुआ आत्मा को कर्म-रज रहित कर आत्मा को ऊर्ध्वगति की ओर अग्रसर करने में समर्थ बन जाता है।
समिति-गुप्ति का दूसरा नाम- ‘अष्ट प्रवचन माता' के रूप में आगमों में उपलब्ध है जो पूर्ण रूपेण सार्थकता के साथ यथार्थता भी लिए हुए है। द्रव्य माता जिस प्रकार अपने बालक की देखभाल, पालनपोषण, संरक्षण-संवर्धन करती हुई उसका सुखद, समुज्ज्वल व मंगलमय जीवन बनाने में योगदान करती है। उसी प्रकार मातृ-स्वरूपा, प्रभु महावीर स्वामी प्रणीत द्वादशांगी- प्रवचन रूप ये आठ भाव माताएँ भी साधक के संयमी-जीवन के उत्थान में अपनी अहम् भूमिका का निर्वहन करती हैं। वस्तुतः ये अष्ट कल्याणकारिणी भाव माताएँ ही साधु-साध्वियों के संयमी-जीवन का सर्वथा पोषण करने वाली हैं।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org