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________________ 379 10 जनवरी 2011 जिनवाणी 2.भाषा समिति-हित, मित, सत्य और सन्देह रहित बोलना, सावधानी पूर्वक भाषण-सम्भाषण करना भाषा समिति है। भाषा का महत्त्व जग जाहिर है। भाषा व्यक्ति के व्यक्तित्व की परिचायक होती है। मधुर, आकर्षक, प्रिय भाषा व्यवहार में लोकप्रिय बनाती है। उसी प्रकार रागद्वेष रहित भाषा निश्चय में आत्मा को पवित्र करने वाली होती है। मौन ही मुनि शब्द का अर्थ प्रकट करता है। अर्थात् मौन से ही मुनि होता है। लेकिन संयम-जीवन के निर्वाहार्थ साधक को कदाचित् वचन योग का आलम्बन लेना पड़ता है। उस समय सम्यक् प्रकार से किया गया भाषा का प्रयोग भाषा समिति कहलाता है। उत्तराध्ययन सूत्र के 24वें अध्ययन की 9-10वीं गाथा भाषा समिति के स्वरूप का प्रतिपादन करती है। कोहे माणे य मायाए, लोभे य उवउत्तया। हासे भए मोहरिए, विगहासु तहेव य॥ एयाई अट्ठ ठाणाई, परिवज्जितु संजए। असावज्ज मियं काले, भासयासेज्ज पन्जवं ।। अर्थात् साधक क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, भय, मौखर्य और विकथाओं के प्रति सतत उपयोग युक्त होकर रहे। प्रज्ञा सम्पन्न साधन उक्त आठ प्रकारों को त्यागकर उचित समय पर निरवद्य एवं परिमित भाषा का उपयोग करे। तात्पर्य यह है कि कदाचित् क्रोध, मान आदि के कारण असत्य की सम्भावना हो जाए तो विवेकशील साधक उस पर विचार करके उससे बचने का प्रयास करे, क्योंकि विवेक रहित अवस्था में ही प्रायः असत्य का प्रयोग होता है। अतः भाषा समिति के संरक्षणार्थ निर्दोष एवं समयानुकूल भाषा का ही प्रयोग करे। अतः द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से वाक् प्रयोग होना चाहिये। द्रव्य से-सत्य भाषा और व्यवहार भाषा का ही उपयोग करे।कर्कश, कठोर आदि सावध भाषा का प्रयोग नहीं करे। क्षेत्र से-मार्ग में चलते हुए वार्ता नहीं करे। काल से-रात्रि काल में प्रथम प्रहर के बीत जाने पर ऊँचे स्वर में न बोले, सूर्योदय तक। भाव से-किसी को कष्ट न हो ऐसी भाषा का उपयोग सहित प्रयोग करे। भाषा विवेक को आगम के अनेक स्थलों पर बताते हुए भाषा का महत्त्व प्रतिपादित किया गया है। आचार के प्रतिपादक आगम आचारांग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के चौथे अध्ययन के प्रथम उद्देशक में कहा है अणुवीयी णिहाभासी समिताट संजते मासं भासेज्जा। अर्थात्-संयमी साधु या साध्वी विचारपूर्वक भाषा समिति से युक्त निश्चितभाषी एवं संयत होकर भाषा का प्रयोग करे। आचारांग सूत्र के भाषाजात अध्ययन में साधु-साध्वी की प्रत्येक क्रियान्विति में भाषा के प्रयोग का वर्णन किया गया है। साधकों को किस प्रकार की भाषा का प्रयोग करना है तथा कौनसी भाषा का प्रयोग नहीं करना है, इस पर विस्तृत प्रकाश डालते हुए भाषा के विवेक को प्रकाशित किया गया है। अन्त में इसे आचार की पवित्रता की द्योतक बताते हुए कहा है Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003844
Book TitleJinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Others
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2011
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size8 MB
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