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________________ || 10 जनवरी 2011 || जिनवाणी अर्थात् संयमी-साधक आलम्बन, काल, मार्ग और यतना, इन चार कारणों से परिशुद्ध ईर्या से गमनागमन करे। साधक की प्रत्येक शारीरिक क्रिया जैसे-चलना, फिरना, उठना, बैठना आदि गति सम्बन्धी समस्त क्रियाओं का समावेश ईर्या में हो जाता है। ईर्या की शुद्धि ही ईर्या समिति का पालन है। ईर्या समिति के पालन में चार कारण अनिवार्य हैं1. आलम्बन-ज्ञान, दर्शन और चारित्र के आलम्बन से ईर्या का पालन करना होता है। निरालम्बन ईर्या से संयम की विराधना हो सकती है। उक्त तीन आलम्बन से गमनादि करना ही ईर्या की शुद्धता है। 2. काल-साधक के लिए रात्रि में प्रकाश का अभाव होने से ईर्या नहीं करने का विधान है। चक्षुओं से वस्तुओं का ग्रहण दिन में ही होना सम्भव है इसलिए दिन का काल ही उचित है। 3. मार्ग- कुपथ का त्याग कर सत्पथ पर चलना चाहिए। वनस्पति, सचित्त पृथ्वी आदि से युक्त मार्ग पर गमनागमन से संयम-विराधना सम्भव है। 4. यतना-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से यतना का विचार करते हैं। द्रव्य से उपयोग पूर्वक जीव-अजीव द्रव्यों को भली-भाँति देखकर, क्षेत्र से युग प्रमाण (4 हाथ) आगे की भूमि देखकर, काल से-दिन में, वह भी यतना पूर्वक तथा भाव से सजगता पूर्वक गमन करना। ईर्या समिति का पालन करते साधक को पाँच इन्द्रियों के विषयों तथा वाचना आदि पाँच प्रकार के स्वाध्याय का भी वजन विधान है। गमनागमन करते समय तन्मयता से उसी ईर्या को प्रमुखता देते हुए ईर्या की क्रिया करनी चाहिये। इस भाव को उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है इंदियत्थे विवज्जित्ता, सज्झायं चेव पंचहा। तम्मुत्ती तपुरक्कारे, उवउत्ते इरियं रिए॥ इसी प्रकार आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कन्ध के तृतीय अध्ययन के दूसरे उद्देशक में कहा है से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गामाणुगामं दूइज्जमाणे णो परेहिं सद्धिं परिजविय गामाणुगामं दूइज्जेज्जा । ततो संजयामेवगामाणुगामं दूइज्जेज्जा। अर्थात् साधु अथवा साध्वी को ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए गृहस्थों के साथ अधिक वार्तालाप करते नहीं चलना चाहिए। किन्तु ईर्या समिति का पालन करते हुए यथाविधि विहार करना चाहिये। दशवैकालिक सूत्र के पाँचवें अध्ययन की 7वीं गाथा भी ईर्या समिति के पालन का सन्देश देती है तहेवुच्चावया पाणा, भत्तहाए समागया। तउज्जुयं न गच्छेज्जा, जयमेव परक्कमे ।। अर्थात्-भिक्षा के लिए गमनागमन करते समय यदि रास्ते में भोजनार्थ एकत्रित हुए नाना प्रकार के प्राणी दिखाई दें तो वह साधक उनके पास नहीं जाए, किन्तु यतना पूर्वक वहाँ से अलग गमन करे ताकि उन प्राणियों को किसी भी प्रकार का कष्ट सेवन न हो। दशवैकालिक के ही चौथे अध्ययन में भी 'जयं चरे' के Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003844
Book TitleJinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Others
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2011
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size8 MB
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