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________________ 364 364 जिनवाणी | 10 जनवरी 2011 || प्रभु वीर सर्वज्ञ थे। उन्हें ज्ञात था कि नौ गणधर उनके जीवनकाल में ही अपना आत्मार्थ सिद्ध कर मोक्ष में चले जायेंगे। शेष इन्द्रभूति गौतम और सुधर्मा में से गौतम स्वामी को भगवान के निर्वाण के बाद ही केवल ज्ञान हो जाता, अतः गौतम ऐसा कहते- “मैं ऐसा देखता हूँ, मैं ऐसा कहता हूँ।" जबकि कोई भी पट्टधर अपने पूर्ववर्ती आचार्य के आदेशों, आदर्शों एवं सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार करता है तथा आज्ञाओं का पालन करवाता है। भगवान के निर्वाण के समय आर्य सुधर्मा चार ज्ञानधारी और 14 पूर्वो के ज्ञाता थे, केवली नहीं, अतः वे ऐसा कह सकते थे "भगवान् ने फरमाया है" अतः तीर्थंकर महावीर द्वारा प्ररूपित श्रुत परम्परा को अविच्छिन्न रूप से यथावत् रखने की दृष्टि से आर्य सुधर्मा को प्रथम पट्टधर नियुक्त किया गया। मूलतः जिनेन्द्र भगवान द्वारा स्थापित तीर्थ की महत्ता बतलाने के लिए आचार्य परम्परा स्थापित की गई। आचार्यों ने प्रवचन को सुरक्षित रखा और अपने-अपने उत्तराधिकारी को इस रूप में दिया ___ "सुयं मे आउसं, तेणं भगवया एवमक्खायं।" 'हे आयुष्मन् मैंने सुना है, उन भगवान के द्वारा ऐसा कहा गया है। जैनागमों में आचार्यों की महिमा का विविध स्थानों पर विविध रूपों में वर्णन है। “अत्थं भासइ अरहा सुत्तं गथंति गणहरा निउणं।" तीर्थंकरों की वाणी मुक्त सुमनों की वृष्टि के समान होती है, महान् प्रज्ञावान् गणधर उसे सूत्र रूप में ग्रथित करके व्यवस्थित आगम का रूप देते हैं। इसलिए आगमों में वर्णित आचार्य-महिमागान को यह भी कह सकते हैं कि तीर्थंकरों ने स्वयं अपने मुख से आचार्य महिमा गाई है। जैनागमों में आचार्य महिमा व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र, शतक 5, उद्देशक 6 में गौतम की पृच्छा पर प्रभु वीर के द्वारा गण-संरक्षण तत्पर एवं अपने कर्त्तव्य और दायित्व का भली-भांति वहन करने वाले आचार्य और उपाध्याय के लिए एक, दो या अधिकाधिक तीन भव में सिद्धत्व प्राप्ति की प्ररूपणा की गई है। “गोयमा! अत्थेगइट तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झांति अत्थेगइए दोच्चेणं भवग्गहणेणं सिज्झांति, तच्चं पुण अवग्गहणं नातिक्कमंति।" श्रावक आवश्यकसूत्र की बड़ी संलेखना में वर्णित है "तीर्थंकर भगवान को नमस्कार करके अपने धर्माचार्य जी को नमस्कार करता हूँ।" "नमोत्थुणं मम धम्मायरियस्स धम्मोवदेसगस्स" अन्तकृदशा सूत्र के वर्ग 6, अध्ययन 15 में अतिमुक्त- गौतम संवाद में गौतम ने भगवान को आचार्य कहा है। “मेरे धर्माचार्य और धर्मोपदेशक भगवान महावीर।" "मम धम्मायरिए धम्मोवएसट भगवं महावीरे जाव संपाविउकामे।" दशवैकालिक सूत्र, अध्ययन 9 विनय समाधि के द्वितीय उद्देशक, गाथा 12 में कहा है Jain Educationa International www.jainelibrary.org For Personal and Private Use Only
SR No.003844
Book TitleJinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Others
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2011
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size8 MB
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