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|| 10 जनवरी 2011 ||
जिनवाणी (आत्मा) का कभी नाश नहीं होता” इस प्रकार साधु विचार करे। कथाः- इस विषय में स्कन्दाचार्य के 499 शिष्यों की कथा जान लेनी चाहिए। (14) याचना परीषहः(1) साधु को याचना-परीषह-विजय के लिए ऐसा चिन्तन करना चाहिए कि अहो! अनगार भिक्षु की
यह चर्या वास्तव में सदा से ही अत्यन्त कठिन रही है। उसे आहार, वस्त्र आदि सब कुछ याचना
से ही प्राप्त होता है, उसके पास ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है जो बिना माँगे प्राप्त हुई हो। (ii) गोचरी हेतु गृहस्थ के यहाँ प्रविष्ट साधु के लिए गृहस्थ के सामने आहार आदि के लिए हाथ
पसारना आसान नहीं है। अतः याचना के मानसिक कष्ट से घबराकर साधु ऐसा विचार न करे
कि इससे तो गृहवास ही अच्छा है। (iii) भोजन तैयार होने जाने पर साधु गृहस्थों के यहाँ आहार की गवेषणा करे। आहार मिले अथवा
नहीं मिले तो भी बुद्धिमान साधु खेद न करे। कथाः- याचना-परीषह पर बलदेव मुनि की कथा द्रष्टव्य है। (15) अलाभ परीषहः(i) आज ही तो मैंने कुछ आहार नहीं पाया, संभव है, कल प्राप्त हो जाए। जो साधु इस प्रकार
दीनता रहित होकर अलाभ का अपेक्षा से विचार करता है, उसे अलाभ परीषह व्यथित नहीं
करता है। कथाः- अलाभ परीषह-विजय पर ढंढण मुनि की कथा द्रष्टव्य है। (16) रोग परीषहः(i) ज्वरादि रोग को कर्मों के उदय से उत्पन्न हुआ जानकर उसकी वेदना से पीड़ित साधु दीनता रहित
होकर अपनी प्रज्ञा को स्थिर करे। रोग के व्याप्त होने पर तत्त्व बुद्धि में स्थिर होकर उसे समभाव
से सहन करे। (ii) रोग होने पर आत्म-गवेषक मुनि रोग प्रतीकारक चिकित्सा का अनुमोदन न करे, किन्तु
समाधिपूर्वक रहे। निश्चय से उसका शुद्ध श्रमणभाव यही है कि वह रोगोत्पत्ति होने पर न तो
स्वयं चिकित्सा करे, न ही करावे, उपलक्षण से उसका अनुमोदन भी न करे। भावार्थः- यह कथन जिनकल्पी तथा अभिग्रहधारी साधु की अपेक्षा से है। स्थविर कल्पी के लिए सावध चिकित्सा का निषेध है, निरवद्य चिकित्सा का नहीं। कथाः- मथुरानरेश के पुत्र रोगपरीषह-विजयी कालवैशिक कुमार श्रमण की कथा द्रष्टव्य है। (17) तृणस्पर्श परीषहः(i) अचेलक एवं तेल आदि न लगाने से रुक्ष शरीर वाले सतरह प्रकार के संयम-पालक मुनि को
घास, दर्भ आदि के संस्तारक (बिछौने) पर सोने या बैठने से शरीर को अत्यन्त पीड़ा होती है।
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