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10 जनवरी 2011 | जिनवाणी
| 337 (6) अचेल परीषहः(i) मेरे वस्त्र अब अत्यन्त जीर्ण हो गये हैं, इनके सिवाय अन्य वस्त्र मेरे पास नहीं हैं। ये वस्त्र तो थोड़े
दिन ही चलेंगे। कोई दाता भी नहीं दिखता, ऐसी स्थिति में मुझे निर्वस्त्र होना पड़ेगा। भिक्षु इस प्रकार का दैन्य भाव मन में न लाये और न यह सोचकर मन में हर्षित हो कि “मेरे जीर्ण वस्त्र देखकर कोई श्रद्धालु श्रावक मुझे नये वस्त्र दे देगा। अहा! फिर मैं नये वस्त्रों से सुसज्जित हो
जाऊँगा।" इस प्रकार हर्ष भी न करे, अपितु दैन्य व हर्ष से दूर रहे। (ii) विभिन्न एवं विशिष्ट परिस्थितियों के कारण कभी मुनि अचेलक होता है और कभी सचेलक भी
होता है। अतः ये अचेलक अवस्था और सचेलक अवस्था, दोनों ही स्थितियाँ, यथाप्रसंग
संयमधर्म के लिए हितकारक जानकर ज्ञानी मुनि खेद न करे। कथाः- आर्यरक्षित आचार्य के संसारपक्षीय पिता प्रव्रजित सोमदेव मुनि की कथा द्रष्टव्य है। (7) अरति परीषहः(i) एक गाँव से दूसरे गाँव विचरण करते हुए अकिंचन (परिग्रह रहित) अणगार के चित्त में कदाचित्
अरति (संयम के प्रति अरुचि) प्रविष्ट हो जाए तो उस परीषह को समभाव से सहन करे। (ii) प्रस्तुत परीषह को सहन करने के लिए सप्तसूत्री उपाय बताया गया है- (1) हिंसादि से या
विषयासक्ति से विरत हो। (2) आत्म-भाव का रक्षक रहो। (3) श्रुतचारित्र धर्मरूपी उद्यान में रमण करे (4) आरम्भप्रवृत्ति से दूर रहे, (5) शान्त रहे, (6) हिताहित या वस्तु तत्त्व का मनन करता रहे एवं (7) सर्व विरति प्रतिज्ञाधारक मुनि अरति आते ही उसकी उपेक्षा करके संयममार्ग
पर मन को मोड़ दे। कथाः- इस विषय में प्रव्रजित पुरोहित पुत्र और राजपुत्र की कथा द्रष्टव्य है। (8) स्त्री परीषहः(i) लोक में जो स्त्रियाँ हैं वे मनुष्यों के लिये आसक्ति का कारण हैं। इन स्त्रियों को जिस साधु ने ज्ञ
परिज्ञा से त्याज्य समझकर, प्रत्याख्यान-परिज्ञा से छोड़ दिया है उस साधु का साधुत्व सफल है। (i) इस प्रकार स्त्रियों के संग को कीचड़ रूप मानकर बुद्धिमान साधु उनमें फंसे नहीं तथा
आत्मगवेषक होकर संयम मार्ग में ही विचरे। कथाः- इस विषय में स्थूलभद्र स्वामी और उनके सिंहगुफावासी गुरुभ्राता की कथा द्रष्टव्य है। (9) चर्या परीषहः(i) निर्दोष आहार से निर्वाह करने वाला साधु अकेला ही परीषहों को पराजित कर ग्राम में, नगर में,
निगम (व्यापारिक केन्द्र-मंडी) में अथवा राजधानी में विचरण करे। (ii) भिक्षु गृहस्थादि से असाधारण होकर विचरण करे। वह वस्तुओं (सजीव-निर्जीव) के प्रति ममत्व
भाव न करे, गृहस्थों के संसर्ग से दूर रहे और गृह-बन्धन से रहित, अथवा अनियतवासी होकर
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