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________________ जिनवाणी __ 10 जनवरी 2011 || वाले लट, केंचुआ, कृमि, शंख आदि, त्रीन्द्रिय जीवों में शरीर, रसना और घ्राण वाले चींटी, मकोड़े, दीमक, झिंगुर आदि, चतुरिन्द्रिय में काया, जिह्वा, घ्राण और चक्षु वाले तितली, मक्खी, भ्रमर, बिच्छू आदि अनेक जीव आते हैं। उपर्युक्त चार और पाँचवी श्रवणेन्द्रिय वाले जीव पंचेन्द्रिय जीव कहलाते हैं। पंचेन्द्रिय जीव दो प्रकार के होते हैं - सम्मूर्छिम और गर्भज। आगमों में संमूर्छिम जीवों की उत्पत्ति जिस प्रकार से बताई गई है, उसकी तुलना वर्तमान में क्लोनिंग से की जा सकती है, जिसके औचित्य-अनौचित्य पर चर्चा हो रही है। तिर्यंच पंचेन्द्रिय के तीन प्रकार हैं - जलचर, स्थलचर और खेचर। जलचर के अन्तर्गत मत्स्य, कच्छप, ग्राह, मगर, शुंशुमार आदि आते हैं। स्थलचर की दो मुख्य जातियाँ हैं - चतुष्पद और परिसपी" चतुष्पद के चार प्रकार हैं - एक खुर वाले, जैसे अश्व आदि, दो खुर वाले, जैसे बैल आदि, गोल पैर वाले, जैसे हाथी आदि और नख-सहित पैर वाले, जैसे शेर आदि। परिसर्प की मुख्यतः दो जातियाँ बताई गई हैं - एक भुजपरिसपी जो भुजाओं के बल पर रेंगते हैं, वे प्राणी भुजपरिसर्प हैं, जैसे गोह आदि। दूसरी जाति उरःपरिसर्प की है। इसके अन्तर्गत पेट के बल रेंगने वाले सर्प आदि आते हैं। खेचर की चार जातियाँ बताई गई हैं - चर्म पक्षी, रोम पक्षी, समुद्न पक्षी और वितत पक्षी।" आगम ग्रन्थों में सभी प्रकार के जीवों को बचाने के लिए अनेक स्थलों पर प्रेरणाएँ दी गई हैं। उपासकदशांग में भगवान महावीर के उपासक आनन्द श्रावक को अभय प्रदायक कहा गया है। वर्तमान में बढ़ती हिंसा की वजह से पशु-पक्षियों और जीव-जन्तुओं की सैकड़ों जातियाँ और प्रजातियाँ धरती से लुप्त हो गईं और सैकड़ों विलुप्ति की कगार पर हैं। नित नई बीमारियाँ, बढ़ती प्राकृतिक आपदाएँ और जलवायु परिवर्तन के लिए जीव-जन्तुओं का अंधाधुंध विनाश जिम्मेदार है। पर्यावरण-संरक्षण और पारिस्थितिकी सन्तुलन के लिए सभी प्रकार के जीवों का धरती पर होना आवश्यक है। षट्जीवनिकाय की रक्षा में इसी आवश्यकता का प्रतिपादन किया गया है। रात्रि-भोजन निषेध की उपयोगिता रात्रिभोजन त्याग भगवान महावीर की विशिष्ट और अनुपम देन है। श्रमणाचार में रात्रिभोजन-त्याग को छठे महाव्रत का दर्जा दिया गया है। श्रमण-श्रमणियों के लिए रात्रिभोजन-त्याग को अनिवार्य बताया गया है। उनके लिए रात्रि में जल-सेवन भी निषिद्ध है। सूर्यास्त होते-होते भी कोई श्रमण भोजन करता है तो वह ‘पाप श्रमण' कहलाता है।" महाव्रतों के अपवाद मिल सकते हैं, पर रात्रिभोजन-त्याग का कोई अपवाद नहीं है। इससे रात्रिभोजन-त्याग की विशिष्टता और महत्ता का पता चलता है। चारित्रपाहुड में 11 प्रकार के संयमाचरण में रात्रिभोजन-त्याग को समाविष्ट किया गया है। 'आचार-सार' में तो श्रावकाचार में भी रात्रिभोजन-त्याग को छठे व्रत की संज्ञा दी गई है। रात्रिभोजन निषेध का सम्बन्ध जितना अहिंसा और आरोग्य से है, उतना ही संयम, सदाचार और ब्रह्मचर्य से भी है। जो व्यक्ति सूर्यास्त पूर्व ही अपना आहार ग्रहण कर लेता है, सोने के समय तक उसका पेट Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003844
Book TitleJinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Others
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2011
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size8 MB
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