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________________ | 10 जनवरी 2011 ॥ जिनवाणी 321 तृष्णा के वशीभूत इंसान ने पर्यावरण, प्रकृति और संस्कृति को अपूरणीय नुकसान पहुँचाया है। संसार की भलाई और विश्व-शान्ति के लिए मानव में निर्लोभता की चेतना को जागृत करना बेहद जरूरी है। लाभ से लोभ बढ़ता है। स्वर्ण-रजत और वस्तुओं के ढेर भी लोभी की तृष्णा को शान्त करने में असमर्थ हैं। भगवान महावीर लोभ पर अंकुश के लिए संतोष का सुझाव देते हैं। सन्तोष और साधन-शुद्धि हेतु वे गृहस्थ के लिए इच्छा-परिणाम व्रत का विधान करते हैं।" लोभ के विभिन्न रूपों को लक्ष्य करते हुए उन्होंने लोभ के सोलह नाम बताये हैं - 1. लोभ (संग्रहवृत्ति), 2. इच्छा (अभिलाष), 3. मूर्छा (तीव्रतम संग्रह-वृत्ति), 4. कांक्षा (आकांक्षा), 5. गृद्धि (आसक्ति), 6. तृष्णा (लालसा), 7. मिथ्या (लोभ के लिए झूठ), 8. अभिध्या (अनिश्चय), 9. आशंसना (प्राप्ति की इच्छा), 10. प्रार्थना (याचना), 11. लालपनता (चाटुकारिता), 12. कामाशा (काम की इच्छा), 13. भोगाशा (भोग की इच्छा), 14. जीविताशा : इसका लक्षणार्थ है - मरण शय्या पर भी जीने का लोभ नहीं त्यागना, 15. मरणाशा : इच्छापूर्ति नहीं होने पर मरने की इच्छा करना, 16. नन्दिराग (प्राप्त में अनुराग)। इस प्रकार स्पष्ट है कि कषाय-मुक्त व्यक्ति स्वयं का विकास करता है, साथ ही अपने परिवार, समाज, व्यवसाय और इनसे जुड़े लोगों के विकास का कारण बनता है। कषाय-मुक्ति से भाषा-समिति और वचन-गुप्ति का अनुपालन सहज हो जाता है। एक श्रेष्ठ व सफल गृहस्थ बनने के लिए कषाय-त्याग आवश्यक है। कषाय-मुक्ति से जीवन और जगत् का सर्व-मंगल जुड़ा हुआ है। कषाय-मुक्ति की एक साधना से आत्मकल्याण, विश्व-बन्धुत्व, समृद्धि, खुशहाली जैसे अनेक उद्देश्य पूरे होते हैं। षट्जीवनिकाय की रक्षा की उपयोगिता __आत्मा धर्म और दर्शन की आधारशिला है। द्रव्य दृष्टि से वह सबमें एक समान है और अस्तित्व की दृष्टि से स्वतंत्रा पण्डित सुखलालजी के अनुसार स्वतन्त्र जीववादियों में जैन-परम्परा का प्रथम स्थान है। इसके दो कारण बताये गये हैं - प्रथम, आत्मा विषयक जैन अवधारणा अत्यंत वैज्ञानिक और बुद्धिग्राह्य है। द्वितीय, ई.पू. आठवीं सदी में हुए ऐतिहासिक तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ के समय में जैन परम्परा में आत्मा विषयक अवधारणा सुस्थिर हो गई थी। ऐतिहासिक दृष्टि से आत्मा की जैसी अवधारणा आज से 3000 वर्ष पूर्व जैन परम्परा में थी, वैसी ही आज है। जबकि अन्य परम्पराओं की जीव सम्बन्धी मान्यताओं में परिवर्तन होता रहा वस्तु-स्वातन्त्र्य - जैन दर्शन के वस्तु-स्वातन्त्र्य के सिद्धांत ने मानव जाति का बहुत भला किया है। दर्शन, अध्यात्म, समाज और विज्ञान की अनेक अनसुलझी गुत्थियों को वस्तु-स्वातन्त्र्य के सिद्धांत से आसानी से सुलझाया जा सकता है। व्यक्ति और समाज को कमजोर करने वाली धर्म-विषयक अनेक मिथ्या-धारणाएँ आत्मवाद के समक्ष अर्थहीन हो जाती हैं। ज्ञान-विज्ञान, अहिंसा और पुरुषार्थ की अलख जगाने और जगाये रखने में आत्मवाद की बड़ी भूमिका है। श्रमणाचार में स्वावलम्बन का एक आधार वस्तु-स्वातन्त्र्य है, जो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003844
Book TitleJinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Others
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2011
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size8 MB
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