________________
10 जनवरी 2011 जिनवाणी 318
श्रावकोपयोगी श्रमणाचार
डॉ. दिलीप धींग
श्रमणाचार श्रमण-श्रमणियों की आत्म-साधना के लिए तो उपयोगी होता ही है, किन्तु श्रावक-श्राविकाओं के जीवनोत्थान में भी उसकी प्रेरक भूमिका होती है। पर्याप्त अंशों में एक श्रावक भी श्रमणधर्म को जीवन में अपनाकर आत्मोत्थान के साथ पर्यावरण सन्तुलन एवं मानव-समाज के हित में सहयोगी बनता है। डॉ. धींग ने कषायमुक्ति, षट्जीवनिकाय रक्षा एवं रात्रिभोजन-त्याग को आधार बनाकर श्रावकों के लिए एक आवश्यक आचार संहिता प्रस्तुत की है। -सम्पादक
जैन धर्म की सबसे बड़ी विशेषता उसका सुदृढ़ आचार-पक्ष है। जहाँ तक जैन श्रमणाचार की बात है, वह इतना सुदृढ़ है कि संसार के सभी धर्मों के संन्यासियों में जैन साधु-साध्वियों की अलग और विशिष्ट पहचान है। ऐसे श्रमण की उपासना करने वाले गृहस्थ श्रावक को श्रमणोपासक कहा गया है। श्रमण के उपासक श्रावक के लिए यह अभिप्रेत है कि वह श्रमणाचार से अनुप्रेरित होकर अपने श्रावकाचार को अधिक सुदृढ़ बनाए तथा पारिवारिक, सामाजिक और व्यावसायिक जीवन में श्रावकाचार
और श्रमणाचार की उपयोगिता को सार्थक करे। पाँच महाव्रत श्रमणाचार के मूलाधार हैं। इनके अलावा पाँच समिति, तीन गुप्ति, बारह प्रकार का श्रमण-धर्म, सतरह प्रकार का संयम, आहार विहार, दिनचर्या
आदि से सम्बन्धित अनेक बातें श्रमणाचार से जुड़ी हुई हैं। इस प्रकार श्रमणाचार के अनेक नियम, उपनियम, अंग और आयाम हैं। उनमें कषाय-मुक्ति, षट्जीवनिकाय की रक्षा और रात्रिभोजन त्याग का भी विशिष्ट स्थान है। इस लेख में श्रमणाचार की इन तीन विशेषताओं का स्वरूप बताते हुए उनका श्रावकाचार से सम्बन्ध तथा परिवार, समाज, संसार और पर्यावरण की दृष्टि से इनकी आवश्यकता, उपयोगिता और महत्ता बताई गई है। कषाय-मुक्ति की उपयोगिता
संसार और संसार की समस्याओं का मूल है 'कर्म' और 'कर्म'का मूल है - कषाय।' कषाय मानव को पतन के गर्त में गिरा देते हैं और लम्बे समय तक उसे वहीं रखते हैं। दशवैकालिक में कहा गया है - क्रोध, मान, माया व लोभ - ये चारों कषाय जीवन में पाप और सन्ताप बढ़ाते हैं। अपना भला चाहने वालों को इनका त्याग कर देना चाहिये। क्योंकि क्रोध प्रीति का नाश करता है, मान विनय को नष्ट करता है, कपट मित्रता का नाश करता है और लोभ सबका नाश कर देता है।' वात, पित्त आदि विकारों से मानव इतना उन्मत्त नहीं होता जितना
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org