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जिनवाणी
॥ 10 जनवरी 2011 || साधु-साध्वियों को इस काल में स्थिरवास अर्थात् एक ही स्थान पर ठहरने का आचार है, जिसे पर्युषण कल्प (दशाश्रुत स्कन्ध-अष्टम दशा) कहते हैं।
__यह कहावत है कि 'रमता राम, भटकता जोगी' अथवा 'बहती नदी और विचरणशील संत' सदैव निर्मल होते हैं। अतः जैन साधु-साध्वियाँ सदैव भ्रमणशील रहते हैं। यह लोकोक्ति है कि विहरणशीलता या पर्यटनशीलता साधु-जीवन की पावनता की द्योतक है। किसी एक ही स्थान पर स्थायी निवास करने से अनेकविध रागात्मक, मोहात्मक स्थितियाँ बनने की आशंका रहती है, अतएव जैन साधु-साध्वी के किसी एक स्थान में प्रवास के सम्बन्ध में कुछ मर्यादाएँ हैं। पयुर्षणकल्प अर्थात् चातुर्मास के अतिरिक्त आठ महीने में साधु या साध्वी को किसी एक स्थान पर स्थायी प्रवास करना नहीं कल्पता है। किसी एक गाँव या नगर बस्ती में साधु द्वारा एक मास तक (29 दिन) तथा साध्वी को दो चन्द्रमास (58 दिन) तक ठहरना कल्पता है।
साधुओं की अपेक्षा साध्वियों को किसी एक स्थान पर दुगुने समय तक प्रवास करने का कल्प है। साध्वियों के दैहिक संहनन, शरीर बल, विविध काल की दैहिक स्थितियाँ इत्यादि को दृष्टि में रखते हुए उनके संयम जीवितव्य की सुरक्षापूर्ण संवर्द्धना हेतु यह आवश्यक जाना एवं माना गया। साधु का विहार 9 कोटि का तथा साध्वी का 5 कोटि का कहा जाता है। 2. क्रय-विक्रय केन्द्रवर्तीस्थान में ठहरने का कल्प
- साध्वियों का आपणगृह (जहाँ वस्तुओं का व्यापक रूप से क्रय-विक्रय होता है, उस स्थान के मध्य स्थित गृह या स्थानक, उपाश्रय आदि स्थान), रथ्यामुख (वह मार्ग जिससे यान-वाहनों का आना-जाना सुगम एवं बहुतायत से हो, उस मार्ग पर जिस भवन का द्वार खुलता हो, वह रथ्यामुख कहा जाता है), शृंगाटक (वह स्थान, जहाँ से तीन रास्ते निकलते हों) या त्रिक, चतुष्क (चार रास्तों के मिलने के स्थान-चौक), चत्वर (जहाँ से छह या उससे अधिक रास्ते निकलते हों) अथवा अंतरापण (वह स्थान जो हाट या बाजार के रास्ते पर हो) में प्रवास करना नहीं कल्पता है।
जबकि साधुओं को ऐसे स्थानों पर प्रवास करना कल्पता है। (बृहत्कल्प सूत्र) 3. कपाट रहित स्थान में साधु-साध्वियों की प्रवास मर्यादा -
साध्वियों को खुले द्वार वाले अर्थात् कपाट रहित स्थान में रहना नहीं कल्पता। उस खुले कपाट वाले स्थानक/उपाश्रय में एक पर्दा भीतर तथा एक पर्दा बाहर बाँधकर-मध्यवर्ती मार्ग रखते हुए चिलमिलिकावत्महीन छिद्रयुक्त दो पर्दो को व्यवस्थित कर रहना कल्पता है। यह उनकी शील रक्षा हेतु, लज्जा निवारण हेतु आवश्यक है। जिससे बाहर आने-जाने वालों की दृष्टि उन पर न पड़े।
साधुओं को खुले द्वार-कपाट रहित स्थान में रहना भी कल्पता है। (बृहत्कल्प सूत्र) 4. साधु-साध्वी को घटीमात्रक रखने का विधि-निषेध
साध्वियों को भीतर से लिपा हुआ-चिकना किया हुआ, छोटे घड़े के आकार का पात्र धारण करना,
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