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________________ 10 जनवरी 2011 जिनवाणी 305 जिज्ञासा पूछी गई, कि अणगार भगवंतों में कृष्ण लेश्या कैसे मिलती है? जिज्ञासा सुनकर आप तत्काल उठे और कक्ष से बाहर आकर उक्त जिज्ञासा का सटीक उत्तर फरमाया, जिसे सुनकर सभी प्रमुदित हो पाए । (2) दर्शनाचार विषयक- एक बार महाराष्ट्र में सतारा नगरी की ओर आपका विहार चल रहा था। वहाँ मार्ग में एक स्थान पर, कुछ व्यक्ति हाथों में लाठियां लेकर खड़े थे। आचार्य श्री ने उन लोगों को इस तरह खड़ा देखकर, पूछा कि आप लाठियाँ लेकर कैसे खड़े हैं? तब एक व्यक्ति ने कहामहाराज, इस झोंपड़ी में एक विषधर सर्प घुस गया है, उसे मारने के लिये खड़े हैं। इस पर आचार्य श्री ने, उन्हें सर्प को नहीं मारने को कहा। तब वे बोले, यदि आपको यह सर्प प्यारा है तो साथ लेते जावें। इस पर आचार्य श्री झोंपड़ी की तरह निर्भीकतापूर्वक आगे बढ़े। सर्प को कहा - "यदि जीवित रहना चाहते हो तो मेरे ओघे में आ जाओ।" जैसे ही उन्होंने ओघा आगे बढ़ाया सर्प उसमें आ गया। आचार्यप्रवर ने उसे सुदूर जंगल में सुरक्षित स्थान पर ले जाकर छोड़ दिया। यह आचार्य श्री की धर्म के प्रति दृढ़ श्रद्धा एवं दर्शनाचार की शुद्ध पालना का उदाहरण है। ( 3 ) चारित्राचार विषयक - आपको आचार विषयक तनिक भी शिथिलाचार पसंद नहीं था । आप बीकानेरी मिश्री के समान थे । चारित्राचार की पालना करने वालों के लिए शक्कर से भी अधिक मिश्री की तरह मीठे थे तो आचार में दोष लगाने वाले संत-सतियों के लिए उन्हें सुधारने हेतु, दण्डित करने में मिश्री के समान कठोर भी थे। एक बार आपके संघ में रहे एक वरिष्ठ संत को, क्रिया में शिथिल एवं दोष लगाते देखा, तो उन्हें यथायोग्य भोलावणा दे प्रायश्चित्त दे, आगे निर्दोष संयम पालने को पाबंद किया। किंतु वे पुनः श्रमणाचार में दोष लगाने लगे। इस पर आचार्य श्री ने उनमें सुधार न देख उन्हें संघ से निष्कासित कर दिया । चारित्राचार की पालना करने-कराने का यह एक आदर्श उदाहरण है। 1 ( 4 ) तपाचार विषयक- आप अंखड बाल बह्मचारी तपस्वी और ध्यान सिद्ध योगी थे। आपकी योगसाधना अद्भुत थी। जो भी आपके सम्पर्क में आता, आपसे प्रभावित हुए बिना नहीं रहता । आप देर रात्रि तक ध्यान करते और अत्यल्प निद्रा ले पुनः ध्यान-साधना में रत हो जाते थे । आप नित्य रात्रि में नंदीसूत्र का स्वाध्याय किए बिना शयन नहीं करते थे। एक बार आपके ज्ञान-ध्यान से प्रभावित होकर टोंक निवासी सज्जन श्री बहादुर मल जी दासोत (जो मूर्तिपूजक संघ के प्रमुख थे) आपसे मंगलिक लेने हेतु लाल भवन, जयपुर में रात्रि के लगभग ग्यारह बजे पहुँचे। उस समय आचार्य श्री को ध्यानमुद्रा में बैठे देख वे चकित रह गए। वे पुनः एक बार प्रातः चार बजे लाल भवन पहुँचे, तो उस समय भी उन्हें पाटे पर ध्यान मुद्रा में बैठे देखा, तो विस्मित हो कह उठे, यह तो योगी नहीं महायोगी है जिसे रात्रि में भी जब देखा तब ध्यान में लीन पाया। वे आपकी इस ध्यान-साधना के तपाचार से प्रभावित हो आपके अनन्य श्रद्धालु भक्त हो गए। आपका Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003844
Book TitleJinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Others
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2011
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size8 MB
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