________________
30
जिनवाणी
10 जनवरी 2011 चतुर माली की तरह गुरु संस्कार और परिष्कार देते हैं
___ बगीचे में तरह-तरह के पेड़-पौधे, झाड़ियाँ, खरपतवार उगती हैं और उनसे बगीचे के सुन्दर पौधों का विकास रुक जाता है। चतुर माली उन झाड़-झंखाड़ को उखाड़कर साफ करता है। पेड़-पौधों की कटाईछंटाई करके उनके विकास को रोकने वाले तत्त्वों को हटाकर सुन्दर उपयोगी पौधों से विकास का अवसर देता
मनुष्य का मन भी एक बगीचा है। इसमें दुर्विचारों की, वासना और विकारों की कँटीली झाड़ियाँ, खरपतवार उगता रहता है और वे सद्विचारों और सद्संस्कारों के पौधों का विकास रोक देते हैं। उनका रस, जीवन तत्त्व स्वयं चूसकर उन्हें कमजोर और क्षीण बना देते हैं। गुरुरूपी माली ज्ञान की, उपदेश की कैंची और कुल्हाड़ी लेकर उन कुविचार रूप झाड़-झंखाड़ को उखाड़कर बाहर फेंकते हैं, उसे प्रोत्साहन की खाद-पानी देकर शक्ति देते हैं और सुविचारों के सुसंस्कार से सद्गुणों के पौधों से जीवनरूपी उद्यान को हरा-भरा सुन्दरमनोरम बनाते रहते हैं।
गुरु अपने अनुभव, दूरदर्शिता, चतुरता और बुद्धिमत्ता के बल पर शिष्य के जीवन उद्यान में, उसके मस्तिष्क में, सद्विचारों के बीज बोता रहता है। कुम्भार की तरह शिष्य को पात्र बनाता है गुरु
___ भारतीय साहित्य में गुरु को कुम्भार की उपमा दी गई है। कुम्भार का काम बहुत बड़ा, योग्यता व दायित्व भरा है। वह बेडौल कुरूप मिट्टी को सुन्दर घट, कलश, कुण्ड, दीपक आदि पात्रों का आकार देता है। जिस मिट्टी में गिरकर जल सूख जाता है उसी मिट्टी को पकाकर ऐसा पात्र बना देता है कि वह पानी को, दूध को, घी को अपने में धारण करके रख लेता है । जल को सोख लेने वाली मिट्टी ही जल धारण करने में समर्थ बनती
है।
गुरु के सामने अनघड़ बेडौल आकार का मानव आता है। गुरु उसे ज्ञान, संस्कार, शिक्षा, सद्बोध और जीने की कला सिखाकर ऐसा पात्र बना देता है कि वह संसार के सभी श्रेष्ठ गुणों को धारण करने में समर्थ हो जाता है । जीवन का रस सोखने वाले तत्त्व भी उसके लिए पोषक बन जाते हैं । तपस्या, साधना, ज्ञान के बल पर वह एक योग्य व्यक्तित्व बनकर समाज में प्रतिष्ठा और आदर प्राप्त करता है।
इस प्रकार गुरु का एक महत्त्वपूर्ण दायित्व है शिष्य के प्रति, गुरु अपने दायित्व को पूर्ण करता है। निष्काम भावना से, निःस्वार्थ भावना से, उसके मन में शिष्य से प्राप्ति की भावना या लोभ नहीं रहता । यदि गुरु शिष्य से कुछ पाने की आशा से, अपेक्षा रखकर ज्ञान देता है तो वह गुरु नहीं कहला सकता, वह वेतनभोगी शिक्षक भले ही कहलाये । गुरु का पद शिक्षक से बहुत ऊँचा है। गुरु शिष्य का मार्गदर्शक है । वह शिष्य को अपने समान और अपने से भी महान् बनाना चाहता है। जिस प्रकार पत्थर को तरासकर सुन्दर देव-प्रतिमा बनाने वाला शिल्पकार एक दिन उस मूर्ति को अपने से भी अधिक मान-सम्मान पाने योग्य बना देता है। स्वयं
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org