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| 10 जनवरी 2011 ||
जिनवाणी (3) कर्म विपाकोदय
कभी-कभी सुपात्र और सुयोग्य दीक्षित श्रमण भी चारित्र और अनुशासन में स्खलना करता हुआ दिखाई देता है तो इसमें उसका पूर्व कर्म का विपाकोदय भी सम्भव है। यद्यपि यह एक परोक्ष प्रकृति है, किन्तु कर्मवाद में विश्वास रखने वाले प्रत्येक आस्तिक को कर्म शक्ति के प्रभाव में निःशंक प्रतीति होती है। ऐसी स्थिति में गुरु अपने सम्यक् मार्गदर्शन से शिष्य को सन्मार्ग में स्थापित करने का प्रयत्न करे, साथ ही उसे कुछ ऐसा अनुष्ठान दे जिसको आराधना से उसका विपाकोदय निर्जरा के रूप में निर्जरित हो जाये और पतन मार्ग पर बढ़ता शिष्य पुनः सन्मार्गका आराधक बन जाये। (4) रत्नाधिकों का प्रमाद
साधु-साध्वी जी जहाँ भी रहते हैं वहाँ जो भी रत्नाधिक गुरु, आचार्य, पदवीधर या बड़े होते हैं, उनकी प्रवृत्तियाँ शिष्य-शिष्याओं को अवश्य प्रभावित करती हैं। यदि आचार्य, गुरु या रत्नाधिक संत-सती जी का व्यवहार शास्त्राज्ञा-विरुद्ध, मान्य परम्परा और लोक-व्यवहार विरुद्ध होता है या विधि-व्यवहार संशयपूर्ण होते हैं तो शिष्य-शिष्याओं में भी अनुशासनहीनता और मनमानापन पनपता है। ऐसे आचार्य या गुरु अपने शिष्यों को अनुशासन में नहीं रख पाते। उनमें ऐसी प्रखरता ही नहीं होती कि शिष्य को स्पष्ट रूप से कुछ समझा सकें । ऐसे आचार्य और गुरु स्वयं ही हीनभावना से ग्रस्त रहते हैं। वे अपने शिष्यों पर प्रभविष्णुता का प्रयोग नहीं कर सकते। शिष्य वर्ग में अनुशासनबद्धता के लिए आचार्य और गुरु का व्यवहार निःशंक, प्रखर और स्पष्ट शास्त्रानुसार और पारम्परिक होना चाहिए। संघ, गण और गच्छ में सम्यक् व्यवस्था वे ही आचार्य और गुरु स्थापित कर सकते हैं जो स्वयं सुदृढ़ व्यवस्थावादी हैं। . यह सत्य है कि पारम्परिक व्यवहार या शास्त्र निर्देशों में भी कभी-कभी देश, काल, परिस्थितिवश परिवर्तन आवश्यक हो जाता है, किन्तु ऐसा परिवर्तन आचार्य स्वय या गुरु स्वय ही न कर बैठे। ऐसे परिवर्तन के लिए शिष्य-समुदाय प्रमुख साधु यहाँ तक कि प्रमुख श्रावक-श्राविकाओं के साथ भी खुली चर्चा होनी चाहिए। सर्व सम्मति से किया गया परिवर्तन न अनुशासनहीनता होगा और न शास्त्रों द्वारा विरुद्ध। शिष्यों पर उसका कुप्रभाव भी नहीं होगा। अनुशासन प्रशिक्षण
अभिनव साधु-साध्वी जी को समय-समय पर अनुशासन प्रशिक्षण भी मिलना चाहिए। अनुशासन की उपयोगिता, उसके फलितार्थ भी मिलना चाहिए। अनुशासन की उपयोगिता, उसके फलितार्थ अनुशासन में विकास, अनुशासन में सर्वांगीण सफलताएँ आदि का ज्ञान दीक्षितों को समय-समय पर मिलते रहने पर उनमें अनुशासन की भावना प्रगाढ़ बनती है और वे स्वयं अनुशासन के महत्त्व को आत्मसात् करते हैं।
__ आचार्य और रत्नाधिक स्वयं अनुशासन का आदर्श उपस्थित करते रहें, इसमें भी संघ के सभी तीर्थों में अनुशासनबद्धता की भावनाएँ जगती हैं और संघ, समाज और गण की सुव्यवस्था बनी रहती है।
- ‘अमृत-पुरुष' ग्रन्थ से साभार
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