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|| 10 जनवरी 2011 || जिनवाणी
263 4. छह आवश्यक : समता (सामायिक), स्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और विसर्ग
(कायोत्सर्ग)। 5. सात अन्य मूलगुण : लोच (केशलोच), आचेलक्य, अस्नान, क्षितिशयन, अदन्तघर्षण,
स्थितभोजन और एकभक्त।
उपर्युक्त मूलगुण श्रमणधर्म की आधारशिला हैं। सम्पूर्ण मुनिधर्म इन अट्ठाईस मूलगुणों से सिद्ध होता है। इनमें लेशमात्र भी न्यूनता साधक का श्रमणधर्म से च्युत बना देती है, क्योंकि श्रमण के लिए आत्मोत्कर्ष हेतु निरन्तर प्रयत्नशील रहना ही श्रेयस्कर होता है। शरीर चला जाए, यह उसे सहर्ष स्वीकार होता है, पर साधना या संयमाचरण में जरा भी आँच आये, यह किसी भी अवस्था में उसे स्वीकार्य नहीं। जीवन के जिस क्षण मुमुक्षु श्रमणधर्म स्वीकार करते हैं, उस क्षण वे “सावजकरणजोगं सव्वं तिविहेण तिरयणविसुद्धं वजंति" अर्थात् सभी प्रकार के सावद्य (दोष युक्त) क्रिया रूप योगों का मन, वचन, काय तथा करने, कराने और अनुमोदन से सदा के लिए त्याग कर देते हैं। मूलगुणों के पालन की इसलिए भी महत्ता है, क्योंकि जो श्रमण इन मूलगुणों को छेदकर (उल्लंघन कर) 'वृक्षमूल' आदि बाह्ययोग करता है, मूलगुण विहीन उस साधु के सभी योग किसी काम के नहीं। मात्र बाह्ययोगों से कर्मों का क्षय सम्भव नहीं होता।' (1-5) महाव्रत
उपर्युक्त अट्ठाईस मूलगुणों में सर्वप्रथम पंच महाव्रत का उल्लेख है। व्रत से तात्पर्य है - हिंसा, अनृत (झूठ), स्तेय (चोरी), अब्रह्म तथा परिग्रह - इन पाँच पापों से विरति (निवृत्ति) होना। विरति अर्थात् जानकर
और प्राप्त करके इन कार्यों को न करना।" प्रतिज्ञा करके जो नियम लिया जाता है वह भी व्रत है। अथवा यह करने योग्य है और यह नहीं करने योग्य है - इस प्रकार नियम करना भी व्रत है।" इस प्रकार हिंसा आदि पाँच पापों के दोषों को जानकर आत्मोत्कर्ष के उद्देश्य से इनके त्याग का इनसे विरति की प्रतिज्ञा लेकर पुनः कभी उनका सेवन न करने को व्रत कहते हैं। अकरण, निवृत्ति, उपरम और विरति - ये सभी एक ही अर्थ के वाचक हैं।
___ हिंसादिक पाँच असत्प्रवृत्तियों का त्यांग व्यक्ति अपनी शक्ति के अनुसार तो कर सकता है, किन्तु . सभी प्राणी इनका सार्वत्रिक और सार्वकालिक त्याग एक समान नहीं कर सकते। अतः इन असत्प्रवृत्तियों से एकदेश निवृत्ति को अणुव्रत और सर्वदेश निवृत्ति को महाव्रत कहा जाता है। वस्तुतः व्रत अपने आप में अणु या महत् नहीं होते। ये विशेषण तो व्रत के साथ पालन करने वाले की क्षमता या सामर्थ्य के कारण लगते हैं। जहाँ साधक अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह - इन पाँच व्रतों के समग्र पालन की क्षमता में अपने को पूर्ण समर्थ नहीं पाता अथवा महाव्रतों के धारण की क्षमता लाने हेतु अभ्यास की दृष्टि से इनका एकदेश पालन करता है, तो उसके ये व्रत अणुव्रत तथा वह अणुव्रती श्रावक (गृहस्थ) कहलाता है तथा मुमुक्षु साधक अपने आत्मबल से इन व्रतों के धारण और निरतिचार पालन में समग्र रूप में पूर्ण समर्थ हो जाता है, तब उसके वही व्रत महाव्रत कहे जाते हैं तथा वह महाव्रती श्रमण, मुनि या अनगार कहलाता है।
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