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10 जनवरी 2011
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जिनवाणी सरलता आती है। स्वयं के दोष और दूसरों के दुःख सहन नहीं होने पर ही सरलता आती है। पूज्यप्रवर के जीवन पुस्तक के हर अध्याय, हर पंक्ति पर यह संदेश प्रत्यक्ष पढ़ा जा सकता है । निरतिचार संयम साधक-तभी तो अपनी दैनन्दिनी ( दैनन्दिनी ही नहीं जीवन में) में अंकित कर पाता है- "सामने वाले को मेरे दोषों का क्या पता? उसे धोखा न हो यह सोचकर अपने में रहे सहे दोषों को निकाल दें।" आत्मविजेता उस महापुरुष का अपने आपको जीतना ही लक्ष्य था । दूसरों को जीतने की भावना ही उनके मनमस्तिष्क में नहीं थी, जीतने की जानकारी देने व अपने गुणों को प्रगट करने का उन्होंने कभी उपक्रम ही नहीं किया। बचपन में ही अपने बाल - सखा भाई तेजमल जी को बांह झुका कर परास्त करने के खेल में विजयी होने पर भी उनके मन की करुणा किस रूप में थी, जरा देखें- “भाई तेजमल के गिरने से मुझे इस खेल में भी कोई रस नहीं रहा। किसी को गिराने, किसी को हराने का खेल ही मुझे नहीं खेलना है । " श्रमणोत्तम साधक शिरोमणि संयम के पर्याय परम पूज्य गुरुदेव के श्रमण जीवन की विशिष्टताओं को किसी आलेख में आबद्ध करना विशिष्ट ज्ञानियों के लिये भी संभव नहीं है। जिन श्रमण भगवंतों ने, पूज्या महासतीवृंद ने, साधक शिरोमणियों ने उनका पावन सान्निध्य पा उनसे संयम धन स्वीकार कर उन महापुरुष के गुणों को अपने जीवन में साकार करने के सार्थक कदम बढ़ाये हैं, उन सबके चरणारविन्दों में सश्रद्धा सविनय सभक्ति वंदन के साथ
"ऐसी हस्ती आप हैं; और न कहीं दिखलाय । दर्शन से एक बार ही परम भक्त बन जाय, पाप विनाशक, सत्य उपासक, सर्वगुणों के धारी हैं नरश्रेष्ठ हुए जिस पुण्य गोद से, धन्य-धन्य महतारी हैं तीर्थराज गुरुराज हैं, ज्ञान गंग कर स्नान
सबको मिलता है नहीं, ऐसा भाग्य महान,
इसी खुशी में आओ हिलमिल दिल के ताले खोल दो
बस एक बार गुरुराज की जय बोल दो,
बोलिये परमपूज्य आचार्य भगवंत पूज्य श्री हस्तीमल जी म.सा. की जय ।" पुरिसवरगंधहत्थी, मरुधरा के रत्न, जिनशासन के शृंगार, रत्नवंश के देदीप्यमान नक्षत्र, शोभा गुरुवर्य की शोभा, मां रूपा लाल हम सब भक्तों के भगवान छत्तीस ही कौम के "पूज्यजी महाराज" को नमन ।
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