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________________ | 250 जिनवाणी | 10 जनवरी 2011 श्रमण-जीवन का प्रारंभ चारित्र से होता है। जब कोई साधक समस्त सावध योगों का जीवन भर के लिये तीन करण-तीन योग से त्याग करने हेतु प्रतिज्ञा स्वीकार करता है तब श्रमण जीवन प्रारम्भ होता है। गुरु भगवन्तों के मुखारविन्द से जिस समय वह अपूर्व उत्साह एवं दृढ़ता के साथ संयम-जीवन की प्रतिज्ञा स्वीकार करता है, उस समय उसके भावों में अप्रमत्तता रहने से उसे अप्रमत्त संयत गुणस्थान का अधिकारी माना जाता है। जो साधक संयम अंगीकार करने के बाद भी अपने भावों को विशुद्ध बनाये रखने हेतु स्वाध्याय-ध्यान, जपतप, सेवा आदि में संलग्न रहता है तो बीच-बीच में अप्रमत्तता आती रहती है। श्रमण-जीवन का महल चारित्र पर टिका रहता है। जितना चारित्र निर्मल एवं उत्कृष्ट होता है, उतना ही साधक का संयम भी विशुद्ध बना रहता है। चारित्र के मुख्यतः पाँच भेद होते हैं- 1. सामायिक चारित्र, 2. छेदोपस्थापनीय चारित्र, 3. परिहार विशुद्धि चारित्र, 4 सूक्ष्म सम्पराय चारित्र और 5. यथाख्यात चारित्र। चयरित्तिकरं चारित्तं होइ आहिय। (उत्तराध्ययन 28.33) अर्थात् संचित कर्मों से आत्मा को रिक्त करना, तप-संयम के द्वारा पूर्व बद्ध कर्मों को दूर हटाना तथा नये कर्मों के बन्धन को रोकना, इस क्रिया का नाम चारित्र है। चारित्र सम्यक् तभी बनता है जबकि वह सम्यक् ज्ञान व सम्यक् दर्शन पूर्वक हो। चारित्र के उक्त पाँच भेदों का विवेचन इस प्रकार है1. सामायिक चारित्र-विषय-कषाय और आरम्भ-परिग्रहादि सावध योगों का, विषम भावों का त्याग करना तथा ज्ञान, दर्शन, चारित्रमय रत्नत्रय रूपसमभाव को धारण करना, इसका नाम सामायिक चारित्र है। दूसरे शब्दों में सर्व-सावद्य योगों का त्रिकरण-त्रियोग से जीवन भर के लिए त्याग कर देना तथा ज्ञानदर्शन-चारित्र की आराधना में संलग्न रहना सामायिक चारित्र' कहलाता है। सामायिक चारित्र के दो भेद होते हैं- 1 इत्वरिक और 2. यावत्कथिक। (1) इत्वरिक सामायिक चारित्र- यह थोड़े काल के लिए होता है। इसकी स्थिति जघन्य सात दिन, मध्यम चार माह और उत्कृष्ट छह महीने की है। यह चारित्र भरत और ऐरवत क्षेत्र में प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के शासनाश्रित साधु-साध्वियों में ही होता है। महाव्रतों में आरोपण के पूर्व जो चारित्र होता है, उसे इत्वरकालिक सामायिक चारित्र कहते हैं। इसे वर्तमान में छोटी दीक्षा भी कहा जाता है। (2) यावत्कथिक सामायिक चारित्र- इसके होने पर संसार का त्याग करते समय सर्व-सावद्य त्याग रूप सामायिक चारित्र जीवन भर रहता है, पुनः महाव्रतारोपण की आवश्यकता नहीं होती। यह चारित्र महाविदेह क्षेत्र के सभी साधु-साध्वियों में तथा भरत-ऐरावत में मध्य के 22 तीर्थंकरों के शासन काल के साधु-साध्वियों में पाया जाता है। ___ सामायिक चारित्र ग्रहण करते समय सातवाँ अप्रमत्त गुणस्थान आता है, बाद में परिणामों की विशुद्धि में कमी आने पर छठा प्रमत्त संयत गुणस्थान आ जाता है। यदि कोई साधक ऐसे उच्चकोटि के हों जो संयम ग्रहण करके अपने परिणामों को विशुद्ध रखते हैं, हीयमान नहीं होने देते, वे अन्तर्मुहूर्त में ही श्रेणीकरण करके आठवें Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003844
Book TitleJinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Others
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2011
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size8 MB
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