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________________ 244 जिनवाणी 10 जनवरी 2011 खायेगा ही नहीं। ऐसा श्रावक (शिष्य) श्रमण (सद्गुरु) के सान्निध्य में पवित्र बन फिर दुबारा विकारों व विषयों के जाल में फंसने से कतराएगा। ऐसी होती है श्रमण एवं श्रावक के पारस्परिक सम्बन्धों की फलश्रुति । 'चंदावेज्झयंपइण्णयं' अर्थात् 'चंद्रवेध्यक प्रकीर्णक' में गुरु-शिष्य अथवा श्रमण-श्रावक के गुणों की व्याख्या करते हुए कुछ सूत्र कहे गये हैं जो उनके गुणों को दिग्दर्शित करने के साथ उनके बीच पारस्परिक व्यवहार कैसा हो, इस पर भी प्रकाश डालते हैं। वे इस प्रकार हैं 1. सव्वत्थ लब्भेज नरो विस्संभं, सच्चयं च कित्तिं च । जो गुरुजणोवइट्ठ विज्जं विणएण गेणहेज्जा 11611 अर्थात् जो श्रावक गुरुजनों द्वारा उपदिष्ट विद्या को विनयपूर्वक ग्रहण करता है वह शिष्य सर्वत्र विश्वास, प्रामाणिकता एवं कीर्ति प्राप्त करता है। 2. दुस्सिक्खिओ हु विणओ, सुलभा विज्जा विणीयस्स 112211 अर्थात् विनयगुण प्राप्त करना दुष्कर है। विनीत शिष्य या श्रावक के लिए ज्ञानार्जन सुलभ होता है। 3. दुल्लहा आयरिया विज्जाणं दायगा समत्ताणं । ववगय चउक्कसाया दुल्लहया सिक्खया सीसा ||14| सम्पूर्ण विद्याओं के प्रदाता श्रमण आचार्य दुर्लभ होते हैं। चारों कषायों से रहित शिक्षक ( श्रमण ) एवं शिष्य (श्रावक) भी दुर्लभ हैं। 4. पुढवी विव सव्वसहं मेरुव्व अकंपिरं ठियं धम्मे । चंदं व सोमलेसं आयरियं पसंसंति । 1 23 11 यानी पृथ्वी की तरह सब सहन करने वाले, पर्वत की तरह अकंपित, धर्म में स्थित, चन्द्रमा की तरह सौम्य एवं कांतियुक्त उन आचार्यों की सभी प्रशंसा करते हैं। 5. जह दीवा दीवसयं पइप्पए सो य दिप्पए दीवो । दीवसमा आयरिया दिप्पंति परं च दीवेंति 113011 जैसे एक दीपक से सैकड़ों दीपक जलते हैं एवं वह दीपक स्वयं भी प्रकाशवान रहता है वैसे ही दीपक के समान आचार्य ( श्रमण श्रेष्ठ) स्वयं प्रकाशित रह दूसरों को प्रकाशित करते हैं। 6. सीयसहं उण्हसहं वायसहं खुद विवास अरइसहं । पुढवी विव सव्वसहं सीसं कुसला पसंसति ।13811 पृथ्वी की तरह सर्दी, गर्मी, वायु, भूखप्यास, अरति ( प्रतिकूलता) आदि सभी कुछ सहने वाले शिष्य की सभी कुशलजन प्रशंसा करते हैं। 7. लाभेसु-अलाभेसु य अविवन्नो जस्स होइ मुंहवण्णो । अप्पिच्छं संतुट्ठं सीसं कुशसला पसंसंति 113911 अर्थात् लाभ एवं अलाभ में जो अविचलित (अविवर्ण) रहता हो उसकी प्रशंसा होती है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003844
Book TitleJinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Others
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2011
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size8 MB
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