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________________ 189 | 10 जनवरी 2011 || जिनवाणी काल शुद्धि दशवैकालिक अध्ययन 5 उद्देशक 2 गाथा 4 में- ‘काले कालं समायरे' वाक्य है जिसका आशय है कि जिस समय जो कार्य करणीय हो. उसी समय में उस कार्य को सम्पन्न करें। अतः साधक को योग्य समय का विचार करके ही सामायिक की साधना करनी चाहिये। ऐसी ही सामायिक निर्विघ्न सम्पन्न होती है। कई महाशय उचित-अनुचित समय का विचार किये बिना सामायिक करने बैठ जाते हैं। फल यह होता है कि उनका मन अपेक्षित शांति की अनुभूति नहीं कर पाता। संकल्प-विकल्प की उधेड़बुन में उनकी सामायिक-साधना गुड़गोबर हो जाती है। जहाँ तक हो सके सामायिक-साधना सूर्योदय से पूर्व या पश्चात् के समय में किये जाने की भावना रखें। वैसे सामायिक-साधना के लिये कोई काल बुरा नहीं है, सद् कार्यों के लिये हर समय शुभ है। भगवान महावीर ने निशीथ सूत्र 10.37 के माध्यम से साधुओं के लिये कथन किया है-“जे भिक्खू गिलाणं सोच्चा णच्चा न गवसइ न गवसंतं वा साइज्जइ.....आवज्जइ चउम्मासियं परिहारठाणं अणुग्घाइयं।" यदि कोई साधु, बीमार साधु की सेवा, सार संभाल को छोड़, किसी अन्य कार्य में लग जाए तो उसको गुरु चौमासी का प्रायश्चित्त आता है। जब साधु के लिये ग्लान-वृद्ध रोगी की सेवा का विधान है तब सांसारिक मनुष्य का दायित्व तो परिवार के प्रति और भी अधिक है। वह वृद्ध, असहाय, रोगी आदि की सेवा कर उपकार से उऋण होने का लक्ष्य रखे। अतः गृहस्थ सेवा आदि का समय टाल कर ही सामायिक करे। बीमार को छोड़ सामायिक करना उचित नहीं। वृद्ध,रोगी अपनी आवश्यकता से पुकारता रहे, और आप कहो कि मैं सामायिक में हूँ, सेवा के समय ऐसी साधना में आपकी समता व सहनशीलता कितनी सुरक्षित रह सकेगी, विचारणीय है। सर्वप्रथम आपका उत्तरदायित्व है कि परिवार व वृद्ध को संभालें, यदि आपके नियम ही है तो अन्य व्यवस्था कर ही सामायिक करें। काल शुद्धि से तात्पर्य यह है कि जिस समय में अन्य कोई विशिष्ट कार्य नहीं हो एवं आप स्वभाव में, शान्तता से आत्मभावों में रमण कर सकें, साधना के लिये वही काल श्रेष्ठ है। भावशुद्धि मन-वचन-काया की शुद्धता बनी रहना ही भाव शुद्धि है। मन की चंचलता, वाणी की चपलता, कायिक असंयतता को उपयोग सहित तजकर भावशुद्धि के समीपस्थ स्थित होना है, ऐसे ही महापुरुषों का जीवन आकर्षण का चुम्बकीय केन्द्र होता है- पूज्य गुरुदेव के बारे में कहे शब्द-“मनस्येकं, वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम्" कितने सटीक हैं। “मन-वचन-कर्म तीनों में एकता रखने वाले महात्मा से सब प्रभावित होते हैं।" हम शुद्धि को मन, वचन एवं काया की अपेक्षा भी समझें। (1) मनःशुद्धि- मन की गति विचित्र है, मन ही मनुष्यों के कर्म-बंध और मोक्ष का कारण है। संत लोगों का काम उचित-अनुचित का ध्यान दिलाकर सर्चलाइट दिखाना है। बुद्धिवादी लोग कहते हैं कि मन में अशांति के समय सामायिक नहीं करनी चाहिए। ऐसा तर्क करने वालों को ध्यान देना चाहिये कि दवा, रोग की स्थिति में ही Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003844
Book TitleJinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Others
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2011
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size8 MB
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