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________________ 10 जनवरी 2011 जिनवाणी 183 को सम कहते हैं। भगवती सूत्र में भी आत्मा को ही सामायिक कहा है- 'आया खलु सामाइए । ' मोक्षाभिमुखी प्रवृत्ति सामायिक है। गुरुदेव हस्ती के अनुसार दण्ड से अदण्ड में लाने वाली क्रिया का नाम सामायिक है। श्रेष्ठ आचरण को भी सामायिक कहा है। अपने आप में सम हो जाना ही सामायिक है । तत्त्वार्थ टीका के अनुसार- सामायिक एक आध्यात्मिक साधना है। यह बाह्य वैभव, आडम्बर या प्रदर्शन की वस्तु नहीं । गुरुदेव का चिन्तन रहा कि सामायिक में स्वाध्याय आवश्यक है। बिना स्वाध्याय के सामायिक शुद्ध नहीं हो सकती। शास्त्रकारों ने सामायिक को मोक्ष प्राप्ति का प्रमुख अंग बताया है। उचित समय पर आवश्यक कर्त्तव्य को भी सामायिक कहते हैं । उक्त विभिन्न दृष्टिकोणों से यही निष्कर्ष निकलता है कि सामायिक साधना मोक्ष मार्ग को प्रशस्त करने वाली बहुआयामी सद्प्रवृत्ति है। सामायिक साधना वाला सामायिक काल में साधु की जीवन-चर्या से साक्षात्कार कर लेता है। इसकी साधना वाला नारकी एवं तिर्यञ्च गति के ताला लगाकर देव गति व मोक्ष गति को प्राप्त करता है । सामायिक को हम पहले समझें, फिर स्वीकार करें, तो फिर सामायिक करनी नहीं पड़ेगी, स्वतः हो जायेगी। सामायिक सूत्र छह काय के जीवों को अपने समान समझने का रहस्य है। यह सूत्र पाँच इन्द्रियों और छठे मन रूपी छकड़ी के प्रपंच से मुक्त होने का उपाय है। सामायिक का पहला लक्षण आर्त्त - रौद्र का त्याग है । दूसरा लक्षण सावद्य योगों का त्याग है। पाप और सांप को कभी छोटा नहीं समझना चाहिये। ये दोनों "अण थोवं वण थोवं" के समान हैं। ऋण, व्रण, अग्नि, कषाय एवं बीज जैसे वृद्धि को प्राप्त हो जाते हैं वैसे ही छोटा पाप भी बढ़ते-बढ़ते पर्वताकार हो जाता है। सामायिक का तीसरा लक्षण सर्वेन्द्रिय संयम बताया है । इन्द्रियों के विषय ठग के समान हैं, जैसे- ठग प्रारम्भ में थोड़ा लोभ दिखाकर किसी भोले प्राणी को बुरी तरह मूंड लेता है, उसी तरह इन्द्रियों के लुभावने, मनोरम विषयों के बारे में समझना चाहिये। सामायिक साधना में आत्मशुद्धि का तत्त्व ही अधिक होता है। सर्वप्रथम 'करेमि भंते! सामाइयं' से समत्व की प्रतिज्ञा होती है, पश्चात् 'सावज्जं जोगं पच्चक्खामि' से निंदनीय वर्णनीय पापों का त्याग होता है तथा इसके पश्चात् आत्मशुद्धि के संदर्भ में 'पडिक्कमामि, निंदामि गरिहामि तथा 'अप्पाणं वोसिरामि' करते हैं, ये चारों साधना रूप शोधन के प्रतीक हैं। समता के अभाव में की गई सारी साधना प्राण शून्य देह का भार ढ़ोने के समान है। मात्र कपड़े बदलकर, आसन बिछाकर घण्टे भर बैठ जाना, कुछ माला जप, कुछ भजन आदि बोल लेना सामायिक वास्तविक साधना न होकर आचार्य भगवंत (आचार्य हस्ती) के शब्दों में दस्तूर की सामायिक है। इस औपचारिकता वाली परिपाटी से हटकर गुरुदेव ने सामायिक के साथ ज्ञान साधना ( स्वाध्याय) को जोड़ाफलस्वरूप जो परिणाम आए वे आपके सामने हैं- आज शास्त्रधारी स्वाध्यायियों की विशाल सेना पर्युषण पर्वाधिराज में संत-सतियों से वंचित क्षेत्रों में समय दान के साथ सेवाएँ दे रही है। उनकी दूरदर्शिता वाली सोच ने स्वाध्याय के प्रति जो रुचि, लगन, उत्साह का अंकुर प्रस्फुटित किया है वह आज सभी परम्पराओं में मूर्तरूप हो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003844
Book TitleJinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Others
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2011
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size8 MB
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