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10 जनवरी 2011
जिनवाणी
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भान नहीं होता । कहा है- जे के वि गया मोक्खं, जे वि य गच्छंति जे गमिस्संति। ते सव्वे सामाइयप्पहावेण मुणेयव्वं ।
वस्तुतः चिंता, शोक, विपत्ति और अभाव के निवारण के लिये कितना ही धन-वैभव और सुखसाधन जुटा लें, भौतिक विद्या पढ़ लें, बौद्धिक विकास कर लें, वैज्ञानिक आविष्कार करलें, जल-थल नभ पर आधिपत्य जमा लें अथवा इन सबसे ऊपर उठकर कान छिदवा लें, शिर मुंड़ा लें, धुणी रमा लें, गेरुएँ या श्वेत वस्त्र धारण करलें, वस्त्र मात्र को छोड़ दें, किन्तु जब तक हृदय में समभाव का उदय नहीं होगा तब तक समस्याओं का समाधान न हुआ है और न ही होगा। सामायिक की साधना इन सब समस्याओं का सम्यक् समाधान करती है।
यह तो आप जानते हैं कि यह संसार समरस नहीं है। यहाँ शीत, उष्ण, दिन-रात, कठोर-कोमल, सुख-दुःख एवं जन्म-मरण का भी जोड़ा है। सर्वत्र न सुख है, न दुःख, फिर भी मनुष्य सुख की प्राप्ति, सुख की वृद्धि वाली लालसाएँ पोषित करने की सोच में प्रयत्नशील रहता है। वैसे मनुष्य की सामान्य इच्छाएँ शरीर स्वस्थ हो, साथी अनुकूल हो, हर कार्य में पटुता हो, बुद्धि तीक्ष्ण हो, प्रवचन या वार्तालाप की शैली आकर्षक व मिठास भरी हो, इन सबके अतिरिक्त यदि तत्त्व का ज्ञान भी हो तो सोने में सुहागा ही कहेंगे। इन अनेक कामनाओं की पूर्ति होना या मिलना पुण्यशीलता का परिचायक है। पर इच्छाओं के साथ परिस्थितियाँ भी घेरा किये रहती हैं, वे प्रतिरोध करती हैं, अतः वह पद-पद पर दुःखी होने लगता है। जन्म के साथ रोग का, धन के साथ सात भय का, पद-योग्यता के साथ ईर्ष्या व मनोमालिन्य का कारण जुड़ा है। अतः साधारण व्यक्ति को यह जीवन दुःखों का घर प्रतीत होता है। लेकिन सामायिक की साधना वाले साधक के लिये यह जीवन खेल है । जैसे- बालक क्रीड़ा, विनोद तथा भावी जीवन की तैयारी के लिये खेल खेलते हैं। कल-कारखाना, खेती, व्यापार, उद्योग धंधे प्रारम्भ करने से पूर्व बारीकी से जानकारी का प्रशिक्षण रुचि सहित लेते हैं, फिर भी छोटी से बड़ी तक अगणित समस्याएँ प्रतिदिन आती हैं और उनको सुलझाना पड़ता है। सुलझाते हैं, उस समय निराशा के क्षण भी आते हैं। सोचते हैं- ऐसा खेल खेलते कितने जन्म, कितने युग, कितनी परिस्थितियाँ, पात्र और क्षेत्र बदल गये, लेकिन यह खेल अभी तक चल रहा है। यही चिंतन का मूल विषय है। इस खेल को कहाँ तक खेलते रहने की कामना है? या इस पर विराम लगाना है। यदि विराम लगाना है तो दिशा बदलिये, दशा अपने आप बदल जायेगी। इतनी समता से खेलिए कि जन्म ही नहीं लेना पड़े। निश्चय के साथ आत्मा का विकास, पूर्णता तथा लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु शेष जीवन का खेल खेलने के लिये सहनशीलता में गति कीजिये। गतिशीलता के लिये सामायिक आवश्यक है। सामायिक का सतत अभ्यास हर समस्या का हल निकालता है। सामायिक की साधना वाला विपरीत परिस्थितियों में भी समभाव तथा सहनशीलता का आश्रय लेकर प्रसन्नतापूर्वक कर्त्तव्य पथ पर दृढ़ रहता है ।
सामायिक का फल तभी मिल सकता है जब सामायिक व्रत निरन्तर किया जाय । यह नहीं कि
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