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10 जनवरी 2011
जिनवाणी
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संयोग पाकर चारित्र का भेद होगा, अथवा उन्माद प्राप्त कर लेगा। मानसिक उत्तेजना की अधिकता में कभी दीर्घकाल का रोग हो जायेगा और केवली के धर्म से भ्रष्ट हो जायेगा । इसलिये साधु-साध्वी को चाहिये कि प्रणीत आहार नहीं करें। रुक्ष और सादा भोजन भी प्रमाण से अधिक करना अहितकर है। जैसे कि कहा है- परिमाण से अधिक आहार नहीं करने वाला निर्ग्रन्थ होता है।
शास्त्र में चार कारणों से मैथुन संज्ञा का उदय बतलाया है। प्रथम-वेद का उदय, दूसरा रक्त मां वृद्धि, तीसरा स्त्री आदि काम के साधन देखना, सुनना और चौथा काम भोग की कथा करना। इनमें रक्त-मांस की अनावश्यक वृद्धि भी विकार का कारण मानी गई है। अतः रक्त-मांस की वृद्धि को संतुलित रखने के लिए आहार का नियन्त्रण आवश्यक है।
शास्त्र में मुनियों को अन्तजीवी, पंतजीवी, लूहजीवी तुच्छजीवी, उपसन्तजीवी, पसन्तजीवी आदि विशेषणों से वर्णित किया है । प्रान्त, रुक्ष और निस्सार भोजन से वे उपशान्त एवं प्रशान्त जीवन वाले होते हैं । उनका अन्तःकरण निर्मल और क्रोध आदि विकारों के उपशम से शान्त होता है।
काम की अग्नि, भोग की सामग्री से शान्त होने की अपेक्षा अधिक प्रज्वलित होती है। तृणभक्षी प्राणी भी वासना में विफल होकर प्राण गंवा बैठते हैं तो फिर मधुरान्न भोजी मानव की तो बात ही क्या है ? जीवनभर सुवर्ण, पुष्पा, पृथ्वी के सुमनों का चयन करने वाली पिंगला की प्रीति में मातृ प्रेम को भी ठुकराने वाले महाराज भर्तृहरि जब उसकी असलियत समझ गये तो यह कहते हुए निकले कि 'धिक् तां च तं च मदनं च, इमां च मां च' धिक्कार हो पिंगला को और उस हस्तिपाल को, कामदेव को, इस वेश्या और मुझको भी धिक्कार है।
ब्रह्मचर्य व्रत की पंचम भावना में संयमी साधु के लिये दूध, दही, घी, मक्खन, गुड़, तेल, शर्करा, मधु, मद्य और मांसादि विगय से रहित आहार ग्राह्य बताया है। वह भी बहुत नहीं, नित्य नहीं और शाकभाजी की बहुलता वाला भी ग्रहण नहीं करे।
इस प्रकार से समझा जा सकता है कि संयमी के लिये आहार-शुद्धि का कितना गंभीर विचार किया गया है। प्राचीन समय के संत लम्बा तप नहीं करने की स्थिति में रूखी रोटी और छाछ पर वर्षों बिता दिया करते, कई विगय के त्यागी होते । आहार शुद्धि से उनकी साधना में ब्रह्मचर्य का तेज भी चमका करता था। कभी कोई उपद्रव वाले स्थान में भी ठहरा देता तो उनके ब्रह्म तेज से मिथ्यात्वी देवदेवी भी उनके चरणों में आ झुकते । दशाश्रुतस्कंध सूत्र में स्पष्ट कहा है
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'अप्पाहारस्स, दंतस्स, देवा दंसेइ ताइणो ।”
अर्थात् “अल्पाहारी जितेन्द्रिय मुनि के देव भी दर्शन करता है ।" वीर पुत्र श्रमणों को अपना ब्रह्म तेज यदि अक्षुण्ण रखना है तो अवश्य ही उन्हें आहार-विहार पर आवश्यक नियन्त्रण रखना होगा। - जिनवाणी, जनवरी- 2003 से साभार
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