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________________ जिनवाणी | 10 जनवरी 2011 || होने के पश्चात् कुछ ही दिनों में लक्ष्य भूल जाते हैं। परम दयालु वीतराग भगवन्त ने कहा है कि संयमजीवन सुरक्षित रखना हो तो तीन प्रकार के विष से सदा बचें- 1. विभूषा- शरीर व वस्त्रादि की शोभा, 2. स्त्री संसर्ग और 3. प्रणीत रस-भोजन। आत्म-साधक पुरुष के लिये ये तीनों तालपुट विष हैं विभूसा इत्थि-संसग्गो पणीयरसभोयणं । नरस्सऽत्तगवेसिस्स, विसं तालउडं जहा।। -दशवैकालिक, अध्ययन 8, गाथा-57 साधना का प्रथम विष 'विभूषा' है। विभूषा से भोग-रुचि और कामियों को आकर्षण होता है। ब्रह्मचारी के लिये कहा है कि वह विभूषानुवादी नहीं बने। शरीर और वस्त्रादि की सजावट करने वाला स्त्रीजनों के लिये प्रार्थनीय होता है। स्त्रियाँ उसके पास प्रसन्नता से आयेंगी और प्रेम से बातें करेंगी। उनके प्रेमालाप को देखकर लोगों में शंका होगी कि यह साधक कैसा है, जो स्त्रियों से बातें करता है। इसके अतिरिक्त मन की आकुलता से समय पर रोग की उत्पत्ति होगी व संयम-जीवन से भी भ्रष्ट हो सकता है। अतः परीषह नहीं सह सकने और शासन की हीलना, लघुता आदि कारणों से वस्त्रादि धोना पड़े तो संयमी साधक को चाहिये कि उसमें भोगी व्यक्ति की तरह दिखावे का रूप नहीं करे। विभूषा के लिए हाथ, मुँह, पैर धोना, बाल संवारना, नख बनाना, चोलपट्टे पर अच्छे लगे वैसे सल डालना आदि सभी कार्य विभूषा है। निर्मल चमकीले वस्त्र, कड़पदार मुँहपत्ती, आंख पर बढ़िया रंगीन चश्मा और हाथ में रंगीन छड़ी इस प्रकार चटकीले वेष से बने-ठने रहना, संयमी जीवन के लिए दूषण है। लोक में अपवाद और जिनाज्ञा का भंग है। सदाचारी गृहस्थ और विद्यार्थी के लिये भी तेल, साबुन, अंजन, क्रीम, पाउडर आदि निषिद्ध माने गये हैं। तब पूज्य संयमी साधु के लिये तो उनका उपयोग हो ही कैसे सकता श्री दशवैकालिक सूत्र में संयम के अठारह स्थान कहे हैं। उन अठारह में से किसी एक से स्खलित होने पर भी निर्ग्रन्थता से भ्रष्ट कहा गया है। उनमें विभूषा भी एक स्थान है। शास्त्रकार कहते हैं"जो मैथुन से उपरत है उसका विभूषा से क्या काम है?" मेहुणा उवसंतस्स किं विभूसाए कारियं ।। -दशवैकालिक, अध्ययन 6, गाथा 65 यह भोगियों का शृंगार एवं भूषण है, पर भोग-त्यागी मुनि के लिये दूषण है। विभूषा से शरीर का सौन्दर्य बढ़ता है, इन्द्रियों में उत्तेजन आता है और सुन्दरता के कारण स्त्री पुरुषों का आकर्षण केन्द्र बन जाता है। फलस्वरूप स्वयं में देहाभिमान जाग्रत हो जाता है। विभूषा मोहभाव को जाग्रत कर साधक को प्रमत्त बनाती और सुगति मार्ग में अवरोध करती है। देखिये दशवैकालिक सूत्र में स्पष्ट कहा गया है कि- “जो श्रमण सुख का स्वादी और साता सुख के लिये आकुल है, अधिक सोने वाला और शरीर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003844
Book TitleJinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Others
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2011
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size8 MB
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