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________________ 162 जिनवाणी | 10 जनवरी 2011 | आदरपूर्वक सम्मान कर, प्रशंसा कर उनके उत्साह में और गुणों में अभिवृद्धि करते हैं। वे गुणवानों की प्रशंसा करते हैं चाहे वह किसी भी संघ या सम्प्रदाय से जुड़ा हुआ हो। सद्गुरु की दृष्टि सदैव गुणों की तरफ ही रहती है। क्योंकि शक्कर चींटियों को आमंत्रण नहीं देती है वे तो बिना बुलाये ही शक्कर के पास आ जाती हैं। इसी तरह गुण पिपासु भी गुणीजन के पास अपने आप आ जाते हैं। सद्गुरु गुण-प्रशंसक व गुण-ग्राहक होते हैं तथा परनिंदा से सदैव दूर रहते हैं। (7) सरलता- कथनी-करनी में एकरूपता सद्गुरु का विशिष्ट गुण होता है। साधक में सरलता का गुण है या नहीं, उसकी कसौटी ही उसकी कथनी करनी की एकरूपता है। वे उतना ही कहते हैं जितना कि वे कर पाते हैं। साथ ही सभी को प्रेरणा करते हैं कि कथनी और करणी में विसंवाद नहीं होना चाहिए। क्योंकि इससे सरलता रूपी गुण का विनाश होता है। ‘आयगुत्ते सया वीरे जाया मायाइ जावए' अर्थात् जो आत्म गुप्त है, संयमी जीवन में सदा रमता है, वह अप्रमत्त साधक होता है। साथ ही आचारांग सूत्र में साधु के तीन लक्षण बताये हैं - ऋजुकृत, नियाग-प्रतिपन्न, अमायी। प्रथम लक्षण का. अर्थ है सरलता अर्थात् जो सरल हो, जिसका मन, वाणी-कपट रहित हो तथा जिसकी कथनी-करनी में समानता हो वह ऋजुकृत है। 'धम्मो सुद्धस्स चिट्ठई' उत्तराध्ययन सूत्र के इस वाक्य के अनुसार धर्म शुद्ध हृदय में ही ठहरता है। शुद्ध हृदय के लिए सरलता आवश्यक है। अतः सरलता साधुता का मुख्य लक्षण है। निश्चलता और सरलता सद्गुरु के स्वाभाविक गुण हैं । जितना ऊंचा उनका व्यक्तित्व होता है उतना ही सरल उनका जीवन होता है। बालक सी सरलता, संयम पालन में कठोरता, माया रहित जीवन, ये तीनों गुण सद्गुरु में होते हैं, क्योंकि - मान में अकड़ा रहेगा, विनयी नहीं बन पायेगा। पात्र ही नहीं पास में, तो खीर किसमें खायेगा। छोटा हूँ वामन शिष्य हूँ, खुल्ले दिल से कर ऐलान।। (8) असांप्रदायिकता- सद्गुरु सम्प्रदाय को एक व्यवस्था मानते हैं। सम्प्रदाय तो चतुर्विध संघ के ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप के संरक्षण और संवर्धन हेतु प्रचलित हैं । लेकिन सब का कार्य जिनशासन की सुरक्षा का है। अतः वे चतुर्विध संघ को यही उपदेश देते हैं कि अन्य सम्प्रदाय वालों के साथ पर का व्यवहार करना या उनसे द्वेष रखना अच्छा नहीं है। हम सभी को अपना साधर्मी भाई समझें। वर्तमान में धार्मिक जगत् में सम्प्रदायवाद के पोषण को अत्यधिक महत्त्व दिया जाने लगा है, किन्तु आज भी सद्गुरु इसके विपरीत उदार व असांप्रदायिक भावों को महत्त्व देते हैं। क्योंकि सद्गुरु के हृदय में प्राणिमात्र के प्रति करुणा, दया की भावना होती है। 'सत्त्वेषु मैत्री' आपके जीवन का ध्येय है। जिस प्रकार भगवान् महावीर स्वामी ने सभी जीवों की रक्षा के लिए प्रवचन फरमाया, उसी प्रकार संसार के प्राणिमात्र के विकास हेतु सद्गुरु की वाणी से अमृत झरता है। दीन-दुःखियों एवं अज्ञानियों को देख कर उनका हृदय दया से भीग जाता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003844
Book TitleJinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Others
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2011
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size8 MB
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