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________________ 160 | जिनवाणी | 10 जनवरी 2011 || 10 सिद्धांत पर चलते हुए ये अपना सर्वस्व तीर्थंकर के चरणों में अर्पण कर देते हैं। क्योंकि जो साधक हमेशा तीर्थंकर की आज्ञा में रहता हो और कोई भी कार्य उनकी आज्ञा से बाहर नहीं करता हो, तीर्थंकर द्वारा निर्देशित मार्ग पर चलता हो वही शीघ्र कर्मों को जीत कर मोक्ष प्राप्त करता है। मानी व्यक्ति का कभी कल्याण नहीं होता है। जो तीर्थंकर के प्रति समर्पित होते हैं उनका ही कल्याण होता है। अतः कवि कहता 'मैं भी हूँ कुछ सोचना नहीं, मैं ना कुछ ना चीज हूँ। गुरु मुझे धर्म क्षेत्र (में) बोये, क्या मैं ऐसा बीज हूँ। सड़ा गला बोया न जाता, चतुर होते हैं किसान।। (2) भेदविज्ञान के ज्ञाता- शरीर को आत्मा से अलग मानना अध्यात्म योगी का प्रमुख लक्षण है। शरीर आदि समस्त बाह्य वस्तुओं से अपने को अलग करके आत्मस्वरूप में ही रमण करना अध्यात्म योग है। अध्यात्म योग की ऐसी साधना सद्गुरु करते हैं। वे 'मुणिणो सया जागरन्ति' आगम वाक्य को चरितार्थ करते हैं। प्रत्येक परिस्थिति में वे अपनी साधना में लीन रहते हैं। आत्मा को शरीर से भिन्न मानना साधक का प्रमुख लक्षण है। यदि कदाचित् शरीर में असाता उत्पन्न हो जाती है तो वे यही चिन्तन करते हैं कि 'पीड़ा शरीर को हो रही है, मैं तो शरीर से भिन्न हूँ, मेरा रोग-शोक से कोई संबंध नहीं, मैं तो सच्चिदानंद हूँ।' अर्थात् यह शरीर मेरा साथी नहीं है। मेरा साथी तो आत्मा है और आत्मा शरीर से अलग है, अतः जो दुःख हो रहा है वह शरीर को हो रहा है। आत्मा को कोई मार नहीं सकता है वह तो अजर, अमर और अविनाशी है। इसलिए सद्गुरु शारीरिक कष्टों की परवाह नहीं करते हैं। वे 'सव्वभूयप्पभूयस्स' अर्थात् सभी प्राणियों को आत्मवत् समझते हैं इसलिए किसी भी जीव की हिंसा की प्रेरणा नहीं देते। (3) अप्रमत्त साधक- 'अलं कुलस्स पमाएणं' अर्थात् प्रज्ञाशील साधक अपनी साधना में किंचित् मात्र भी प्रमाद नहीं करता। आचारांग की यह सूक्ति सद्गुरु के जीवन में आत्मसात् होती है। सद्गुरु की दिनचर्या सूर्योदय से बहुत समय पूर्व ही प्रारम्भ हो जाती है। प्रवचन आदि कार्यों के बाद जब भी समय मिलता है, वे आत्म-चिन्तन में रत रहते हैं। प्रमाद वृत्ति से वे सदैव दूर रहते हैं। उनका मानना होता है कि प्रमाद व्यक्ति को पतन के गर्त में ले जाता है। इसलिए ‘समयं गोयम! मा पमायए' के अनुसार अपनी दिनचर्या व्यतीत करते हैं। उनका मानना है कि 'ठिओ परं ठावइस्सामि त्ति अज्झाइयव्वं' अर्थात् यदि मैं धर्म में स्थिर होऊँगा तो दूसरों को भी धर्म में स्थिर कर सकूँगा, अतः वे अप्रमत्त भावों से अपनी साधना करते हैं। साथ ही शिष्यों की सारणा, वारणा व धारणा करते हुए, उन्हें आगम शिक्षा से संस्कारित एवं आचरण से उन्नत बनाने के लिए सदैव प्रयत्नशील रहते हैं। उनकी दिनचर्या पूर्णतया पुरुषार्थमय होती है। कभी पुरुषार्थ में शिथिलता नहीं आने देते हैं, कारण उनके जीवन में कोई अहं नहीं होता है, क्योंकि जब साधना एकांत आत्म-कल्याण हेतु की जाती है तो वह साधना उच्चकोटि की होती है और जो साधक ऐसी साधना करता है वह भी उच्चकोटि का साधक होता है। अप्रमत्तता, निर्भयता, निरभिमानता, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003844
Book TitleJinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Others
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2011
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size8 MB
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