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| जिनवाणी
10 जनवरी 2011 || पहले ही जान लेने वाले, जन-मन को आकर्षित करने वाले, परनिन्दा से रहित, गुणनिधान, मधुर शब्दों से धर्म-कथा करने वाले, शुद्ध आचरण वाले, उपदेशक, धर्ममार्ग-प्रभावक, विद्वानों द्वारा प्रशंसित, लोकरीति मर्मज्ञ, मृदुस्वभावी, निःस्पृह तथा साधुप्रवरों के सभी गुणों से युक्त थे। वास्तव में गुरु हस्ती की महिमा अवर्णनीय है। आपने अपने जीवन में आध्यात्मिक एवं वैचारिक मूल्यों को पूर्ण आत्मसात् कर प्रत्येक पल सजगता के साथ आत्मशुद्धि के मार्ग पर चलते हुए दूसरों को भी उसी मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी। उस महासाधक में रागादि युक्त कामना एवं ग्रन्थि नहीं थी। न ही साधना का अभिमान था। वे क्रोधादि कषाय विजयी एवं जितेन्द्रिय थे। उनके जीवन में शान्ति के स्पष्ट दर्शन होते थे।
वे अनुशासनप्रिय थे। स्वयं गुरु चरणों के कठोर अनुशासन में रहकर उन्होंने शिक्षा और संस्कारों की निधि प्राप्त की थी। इसलिए एक सैनिक की भांति न केवल स्वयं अनुशासित जीवन जीते थे, अपितु दूसरों को भी अनुशासन की प्रेरणा देते थे। वाणी से कम, व्यवहार से अधिक उनका जीवन अनुशासन की जीती जागती तस्वीर था।
_ 'विज्जा विनयसम्पन्ने' का शास्त्रीय आदर्श उनके जीवन के कण-कण में मुखरित था। विद्या के साथ विनय, विनय के साथ विवेक, विवेक के साथ वाग्मिता, व्यवहारपटुता आदि अनेक दिव्य, भव्य गुण आपश्री के रोम-रोम में थे। उनकी प्रतिभा बडी विलक्षण थी। भगवान महावीर यदि आज होते तो अपने इन गुण तत्त्वों से सम्पन्न शिष्य को आसुपने-दीघपन्ने अर्थात् आशुप्रज्ञ-दीर्घप्रज्ञ आदि कहकर सम्बोधित करते। अपने लक्ष्य की ओर चले चलो' यही गुरु हस्ती के जीवन का मूल मंत्र था।
'गुरु' शब्द का सामान्य अर्थ होता है भारी, अर्थात् जो अज्ञानान्धकार मिटाने की जिम्मेदारी के भार से युक्त हो, अथवा सद्गुणों के भार के गौरव से युक्त हो । गुरु शब्द में दो अक्षर हैं- 'गु' और 'रु' । इन दोनों अक्षरों को भिन्न-भिन्न दो शब्द मानकर दोनों का समासयुक्त शब्द बनाया गया है - गुरु । भारतीय संस्कृति के उन्नायकों ने गुरु शब्द का विशेष अर्थ इस प्रकार किया है
____'गु' शब्दस्त्वन्धकारे 'रु' शब्दस्तन्निरोधकः ।
अन्धकार-निरोधत्वाद् गुरुरित्यभिधीयते ।। अर्थात् 'गु' शब्द का अर्थ है अन्धकार और 'रु' शब्द का अर्थ है निरोधक । दोनों शब्दों का मिला हुआ अर्थ हुआ अन्धकार का निरोधक । अर्थात् गुरु वह है जो शिष्य के अज्ञानान्धकार को मिटा दे। भावान्धकार का निरोधक होने से ही कोई व्यक्ति गुरु कहला सकता है।
प्रश्न यह है कि इस भावान्धकार को कौन मिटा सकता है। जो स्वयं यथार्थ ज्ञान से प्रकाशमान हो, वही दूसरों को प्रकाश देकर उनके अज्ञानतिमिर को मिटा सकता है। जिसमें ज्ञान का प्रकाश नहीं है, जो स्वयं काम, क्रोध, मद, मोह, मत्सर आदि दुर्गुणों का शिकार बना हुआ है वह दूसरों के अज्ञान, मोह आदि को कैसे मिटा सकता है? जैसे प्रदीपस्व-पर प्रकाशक होता है इसी प्रकार गुरु भी स्व-पर प्रकाशक होता है। जिस प्रकार प्रदीप स्वयं ज्योतिर्मान होकर ही अन्य को ज्योति प्रदान करता है,अदृश्य या अव्यक्त पदार्थों को आलोकित करता
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