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________________ जिनवाणी || 10 जनवरी 2011 पूज्य गुरुदेव से अलौकिक ज्ञानप्रकाश को प्राप्त करने के पश्चात् हम जान पाते हैं अपनी नादानियों को, त्रुटियों को, दोषों को, भ्रांतियों को और फिर उनकी शुद्धि हेतु तत्पर होते हैं। ज्ञान के प्रकाश में, सत्य के आलोक में हमारी जीवन धारा वास्तविक लक्ष्य की ओर अग्रसर होने लगती है। हमें सचिद् आनन्द का स्वरूप ज्ञात होने लगता है । सत्य के प्रकाश से हमारा जीवन चमकने लगता है। कोई भ्रान्ति नहीं रह पाती, कोई भटकाव नहीं रह पाता, कोई बाधा नहीं टिक पाती। ऐसा अनुपम ज्ञान का आलोक हमें प्राप्त होता है- पूज्य गुरुदेव की कृपा से। श्रमण संस्कृति के अनुसार आचार्य, उपाध्याय तथा साधु-साध्वीगण सद्गुरु कहलाते हैं। इन तीन पदों का अपना-अपना विशिष्ट स्थान है। गुरुपद वन्दनीय-पूजनीय होने से णमोकार महामंत्र में तीन बार प्रकारान्तर से नमन किया गया है संत कबीर ने गुरु महिमा का बखान सुन्दर, सरस तथा प्रभावकरूप में इस प्रकार चर्चित संतवानी पद में किया है गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लाग हूँ पाय। बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताय।। गुरु वह जंजीर है जिसकी अंतिम कड़ी परमात्मा से जुड़ी है। मातृदेवो भव, पितृदेवो भव, आचार्य देवो भव की उक्ति को सार्थक करते हुए गुरु ही एक ऐसा सूत्रधार है जो जीवन के संपूर्ण दर्शन से हमारा साक्षात्कार कराता है । परमात्मा को जानने की जिज्ञासा उत्पन्न कर उस जिज्ञासा का समाधान बताता है तब पूर्ण होती है जीवन-यात्रा। गुरु एक ऐसा विशेषज्ञ होता है जो हमारे मन और आत्मा का नियंत्रण और नियमन करता है, जिससे हमारा उत्तरोत्तर आत्मविकास होता जाता है। गुरु ही हमारे जीवन का केन्द्र बिन्दु है, हमारे जीवन की पूर्णता है, गुरु को पाने के लिए, गुरु ज्ञान का रस-पान करने के लिए हमारे हृदय के पात्र में विद्यमान काम, क्रोध, लोभ, मोह और माया की गंदगी को साफ करना होगा, निर्मल करना होगा। कर्म, उपासना व ज्ञान क्रियाओं की पूर्णता पर ही गुरु ज्ञान प्राप्त हो सकेगा। गुरु के प्रति हमारे मन में अटूट श्रद्धा, अनन्य भक्ति एवं विश्वास होना चाहिये। गुरु के गुणों के प्रति हमारा सहज समर्पण होना चाहिए, क्योंकि गुरु गुण गरिमा-महिमा का कोई पार नहीं है, अंत नहीं है, सीमा नहीं है।गुरु ही हमारे मन, बुद्धि व चित्त को समता में लाने का ज्ञान देकर हमें अहंकार से बचाते हैं। इस बात को प्रकट करने के लिए ही कहा है "सात समुद्र की मसि करूँ, लेखनी सब वन जाय। सब धरती कागद कीं, गुरु गुण लिख्या न जाय ।।" कितनी असीम श्रद्धा है महात्मा कबीर की गुरु गुणों के प्रति, कितनी निष्ठा है, कितनी भक्ति है गुरुदेव Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003844
Book TitleJinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Others
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2011
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size8 MB
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