SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 134
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 134 जिनवाणी 10 जनवरी 2011 कायम रहते हैं, किन्तु प्रौढ़ावस्था के संस्कार क्षणिक होते हैं।“ शिष्य की पात्रता के लिए उसमें 'विनय' का आधान होना आवश्यक है - 'विनयाद् याति पात्रताम्' ।” कुल अथवा ज्ञान भी दुष्ट प्रकृति के मनुष्य को विनयी नहीं बना सकता - 'स्वभावो दुरतिक्रमः ' । इसे अनेक उदाहरणों समझा जा सकता है, यथा- क्या चन्दन की लकड़ी से उत्पन्न अग्नि जलाती नहीं है? क्या शैत्य प्रकृति वाले जल से भी वडवानल (समुद्र की अग्नि ) अधिक दाहक नहीं होती है ? स्पष्ट है यद्यपि चन्दन शीतल होता है, परन्तु उसमें लगी आग तो शीतलता नहीं पहुँचाती, और यद्यपि जल अग्निशामक है, परन्तु वडवानल तो ज्वारभाटा के रूप में विनाशकारी ही होता है । अग्नि का स्वभाव है- दाहकता ( जलाना ) । अग्नि यदि शीतल प्रकृति वाले चन्दन की लकड़ी में प्रवेश कर जाए अथवा जल का संस्पर्श प्राप्त कर ले तो भी उसका स्वभाव परिवर्तित नहीं हो सकता, वह दाहकताशक्ति को नहीं छोड़ेगी। इसी प्रकार अविनय प्रकृति का मनुष्य चाहे उच्च कुल वाला हो अथवा प्रकाण्ड विद्वान् हो, इससे उसके स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं आता । विनम्रता रूपी गुण के अभाव में मनुष्य का स्वभाव समुचित उपायों से भी बदला नहीं जा सकता - 'अतीत्य ही गुणान् सर्वान् स्वभावो मूर्ध्नि वर्तते' । अभिवादनशील और सेवाभावी व्यक्ति विनम्र होता है। ऐसे शिष्य से प्रभावित होकर गुरु की स्वतः ही शिक्षा देने की इच्छा जागती है। इन गुणों से रहित व्यक्ति को ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता । अतः सभी शास्त्रों में शिष्य का अभिवादनशील और सेवाभावी होना आवश्यक माना गया है । मनुस्मृति में अभिवादनशील और नित्य वृद्धजनों की सेवा करने वाले व्यक्ति में आयु, विद्या, यश और बल की वृद्धि होने का सन्दर्भ प्राप्त होता है अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः । चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्याय शोबलम् ॥ सेवाभावी व्यक्ति गुरु में निहित ज्ञान को उसी प्रकार प्राप्त कर लेता है जिस प्रकार वह कुदाली से खोदता हुआ पानी को प्राप्त कर लेता है यथा खनन् खनित्रेण नरो वार्यधिगच्छति । तथा गुरुगतां विद्यां शुश्रूषुरधिगच्छति ॥ ज्ञानेप्सु की गुरु में 'श्रद्धा' और 'आस्था' होना भी 'पात्रता' के लिए आवश्यक है। श्रद्धायुक्त होने पर ही ज्ञान मिलता है- 'श्रद्धावान् लभते ज्ञानम्' । गुरु और शास्त्र के वचनों की सत्यता और हितकारिता में दृढ़ विश्वास का नाम ही श्रद्धा है शास्त्रस्य गुरुवाक्यस्य सत्यबुद्ध्यवधारणम् । सा श्रद्धा कथिता सद्भिर्यया वस्तूपलभ्यते ॥ भगवान् श्री कृष्ण ने भी श्रद्धायुक्त पुरुष को अपना अतिशय प्रिय भक्त माना है - 'श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः । 19 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003844
Book TitleJinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Others
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2011
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy