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________________ 130 जिनवाणी 10 जनवरी 2011 डावाँडोल होने का भय सताता रहता है । ये आज के सत्ताधारी आभूषण के समान ही हैं जिनका 'चरित्र' जरा-सी सत्य रूपी आँच से पिघलकर जनता के सामने आ जाता है । अतः ये हमेशा सच्चाई उजागर होने के भय से भयभीत रहते हैं । अहङ्कारवश किसी भी उपदेश को हृदयङ्गम नहीं करते हैं। तृष्णा (लालसा) के विष से मोहित होने के कारण ये राजा लोग हर वस्तु में सुवर्ण को ही देखते हैं । मद्यपान के कारण उग्र स्वभाव वाले ये राजा दूसरों से प्रेरित होकर विनाश कार्य में लग जाते हैं। मद्यपान आज भी युवाओं, सत्ताधारियों, धनिकों और यहाँ तक कि निम्न वर्ग के लोगों के बीच फैला हुआ विकार है। नशे के परिणाम आज हम सभी भली-भाँति जानते हैं। नशा किस प्रकार मनुष्य को नष्ट कर डालता है- इसे समझने के लिए विस्तृत व्याख्या की आवश्यकता नहीं है । आज इसके दुष्परिणाम हम देख भी रहे हैं और यथास्थान पढ़ भी रहे हैं । मद्यपान से व्यक्ति अपने शरीर का ही नहीं दूसरों का भी अहित कर है । राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने भी कहा है- 'शराब आदमी का शरीर ही नहीं आत्मा का भी नाश करती है। " अहङ्कार के वशीभूत होकर अनुचित्त दण्ड- प्रयोग के द्वारा राजा दूरस्थ कुलीन लोगों पर भी चोट पहुँचाते हैं और असामयिक खिले हुए पुष्प की भाँति मनोहर होने पर भी लोगों के विनाश के हेतु होते हैं।” 'दण्ड' के उचित्त प्रयोग हेतु शासक को विवेकी एवं तेजस्वी होना आवश्यक है। इसे कोई अविद्वान् और अधर्मात्मा शासक धारण नहीं कर सकता है और यदि धारण कर भी ले यह 'दण्ड' कुलसहित उस अविवेकी राजा का नाश कर देता । " शास्त्रों में 'दण्ड' की इस प्रकार की अपार महिमा का वर्णन मिलता है। ‘दण्ड' के अनुचित प्रयोग से राजा दूसरों का ही नहीं अपना भी अहित कर डालता है। वे तिमिरान्ध (रतौंधी) रोग की भाँति दूर तक देखने में असमर्थ होते हैं अर्थात् सम्पत्ति और अधिकार का मद उन्हें दूरगामी परिणाम को सोचकर कार्य करने में असमर्थ बना देता है । रात-दिन बढ़ते हुए पाप से ही उनकी देह फूलती जाती है। ऐसी अवस्था में अनेक व्यसन उन्हें अपना शिकार बना लेते हैं और वे उत्तरोत्तर पतन को प्राप्त होते जाते हैं, किन्तु फिर भी उन्हें अपना अपकर्ष दिखाई नहीं देता है। जैसे दीमक के वल्मीक (बाँबी) पर उगे तृण से गिरी जल की बूँद नीचे गिर जाने पर (मिट्टी सूखी होने के कारण) दिखाई नहीं देती है, उस जलबिन्दु के समान ही राजाओं को अपने पतन का अवबोध नहीं होता है। " गुरूपदेश के अभाव में धन-सम्पत्ति से दुर्दशा एक ओर जहाँ राजा अथवा धनिक लक्ष्मी के मोह में फँस जाते हैं वहीं दूसरी ओर धूर्त लोग भी उन्हें घेर लेते हैं। स्वार्थसिद्धि में लगे ये गिद्ध राजाओं की मति भ्रष्ट कर देते हैं और उन्हें अपनी बातों की वञ्चना से ठगते हैं। यथा-जुआ खेलना विनोद है, शिकार ( प्राणिहिंसा) व्यायाम है, मद्यपान विलास है, गुरुवचनों की अवहेलना स्वाधीनता है, धृष्टता धारण करना सहनशीलता है- इत्यादि प्रकार की वाणी की वञ्चनाओं से वे अवगुणों को भी गुणों की श्रेणी में रखकर शासकवर्ग की ऐसी प्रशंसा की झड़ी लगा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003844
Book TitleJinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Others
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2011
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size8 MB
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