________________
128
जिनवाणी
|| 10 जनवरी 2011 | विशेषता, आचार का पालन, लक्षणप्रमाण- देखते ही अदृष्ट हो जाने वाली यह लक्ष्मी किसी का भी न तो विचार करती है और न ही सम्मान । यह चञ्चल लक्ष्मी कहीं भी नहीं ठहरती है। यहाँ-वहाँ परिभ्रमण करती रहती है, मानो मन्दराचल के घूमने से उत्पन्न भंवर का संस्कार इसमें आज भी विद्यमान हो । मानो कमलिनी में घूमने से कमलनाल के काँटे इसके पैरों में लगे हों, अतः कहीं भी नहीं टिकती है। सूर्य जिस प्रकार मेष, वृष, मिथुन आदि द्वादश राशियों में वर्षभर इतस्ततः संक्रमण करता है, उसी प्रकार यह लक्ष्मी भी एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति के पास सञ्चरण करती रहती है।
यह धूतों का ही आश्रय लेती है। विद्वान्, गुणवान्, उदार, सज्जन, कुलीन, वीर, दानी, विनम्र और मनस्वी पुरुषों की ओर तो देखती भी नहीं है। पाताल लोक की कन्दरा (गुफा) जिस प्रकार तम अर्थात् अन्धकार से भरी होती है, उसी प्रकार यह भी तमोगुण प्रधान है। अज्ञान, आलस्य, जड़ता, निद्रा, प्रमाद, मूढता आदि तम के गुण माने गए हैं। तमोगुणी पुरुष निद्रालु और स्तम्भ के समान जडवत् होने के कारण कुछ भी जानने में असमर्थ होता है।"
अल्पसाहसी पुरुषों को जिस प्रकार पिशाचिनी अपनी बहुपुरुष परिमित ऊँचाई दिखाकर भयोन्मत्त कर देती है, उसी प्रकार यह लक्ष्मी भी अल्पबुद्धि पुरुषों को उन्नति दिखाकर उसे पाने की लालसा में उन्मत्त बना देती है। यह सदैव विरुद्धधर्मसमन्वित चरित्र प्रदर्शित करती है, यथा- समुद्रमन्थन के समय जल में उत्पन्न होकर भी प्यास (लालच) बढ़ाती है, अमृत की सहोदरा होती हुई भी जड़ता उत्पन्न करती है अर्थात् धन का अहङ्कार उत्पन्न करके मानव को जड़ = सदसद्विवेकशून्य बना देती है। धूल के समान निर्मल को भी मलिन कर देती है अर्थात् शुद्ध हृदय को भी रजोगुणी (अहङ्कारादि दोषों से युक्त) बना देती है। लक्ष्मी के कालुष्यों का प्रभाव
पूर्वोक्त वर्णन से लक्ष्मी की कलुषता स्पष्ट है। स्वभाव से ही कलुषित लक्ष्मी अपनी छाप छोड़े बगैर कैसे रह सकती है? अर्थात् अपने सान्निध्य से यह विमल को भी कलुषित कर देती है। शुकनासोपदेश में इसे दीपशिखा (दीपक की लौ) के सदृश बताया गया है जो सदा काजल जैसे काले कर्म को ही उगलती है। " यह तृष्णाओं को तृप्त नहीं करती है, अपितु उसे और बढ़ाती ही है। इसके सिञ्चन से तृष्णा रूपी बेल उत्तरोत्तर संवर्धित ही होती है। हरिणों को जिस प्रकार व्याध का गीत आकर्षित करता है उसी प्रकार यह (लक्ष्मी) इन्द्रियों को अपनी ओर खींच कर जाल में फँसा देती है। यह ऐसी धूमलेखा है जो सच्चरित्र को उसी प्रकार ढक देती है जैसे धुंआ चित्र को आच्छादित कर देता है।" इसके प्रभाव से मोह, धनाभिमान, दुराचार, क्रोध, विषय, भ्रूविकार, काम, लोकनिन्दा, छल और कपट का विवर्धन होता है और सद्व्यवहार, दया-दाक्षिण्य, साधुभाव, धर्माचरण, शास्त्रज्ञान, सद्गुणों
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org