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________________ | 112 जिनवाणी 10 जनवरी 2011 अर्थात् अज्ञान रूपी अंधकार को दूर कर ज्ञान का प्रकाश फैलाने वाला ही सच्चा एवं श्रेष्ठ गुरु है । ज्ञान से धर्म होता है, अज्ञान से अधर्म होता है । जिसमें ज्ञान होता है वह धर्म को समझता है। कहते हैं जब गुरु मौन होता है तब देव होता है और बोलता है तब धर्म होता है। आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने गुरु का स्वरूप बताते हुए लिखा है विषयाशावशातीतो, निराम्भोऽपरिग्रहः । ज्ञान-ध्यान-तपोरक्तः, तपस्वी सः प्रशस्यते ।। “जो विषयों (भौतिक सुखों) की आशा के वशीभूत नहीं होते हैं, जो पापों से विरक्त हैं या सारे सासारिक पाप कार्यों से विरक्त रहते हैं, जो अपरिग्रही हैं और सदा ज्ञान, ध्यान व तप में लीन रहते हैं ऐसे गुरु प्रशंसनीय हैं।" रत्नत्रय अर्थात् सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन, सम्यक् चारित्र को धारण करने वाले, पाँच महाव्रत का. निरतिचार पालन करने वाले, पाँच समिति तीन गुप्ति की अखण्ड पालना करने वाले, धर्म को समीचीन रूप से अपनाने वाले, भवसागर से तिरने और तारने वाले ही सुगुरु होते हैं। वे इन्द्रिय-विषयों के वशीभूत नहीं होते, धन सम्पत्ति से बाह्य और आन्तरिक परिग्रह से परे, ज्ञान ध्यान का खजाना स्वयं प्राप्त करते हैं और दूसरों में भी बाँटते हैं। सुगुरु निर्मल, विकार रहित, शान्त, मितभाषी, काम-क्रोध से मुक्त, सदाचारी, जितेन्द्रिय, आध्यात्म ज्ञान से युक्त एवं पवित्र होते हैं। आज की तनाव भरी जिन्दगी में सहनशीलता, त्याग, परोपकार, संयम, दया, पापभीरुता इत्यादि शब्द अपना अर्थ खोने लगे हैं। आज के बौद्धिक युग में किताबी ज्ञान इतना बढ़ जाने के बावजूद भी आपाधापी, असंतोष, भौतिक लोभ-लालच, वैचारिक उलझन, तनाव और चिन्ता में कमी नहीं आई है। जब जीव अपने दुःखों परेशानियों से घबरा उठता है, अशान्त हो जाता है तो शान्ति की तलाश में इधर-उधर भटकने लगता है, उसकी तलाश सच्चे गुरु के चरणों में पहुँचकर खत्म हो जाती है। लौकिक उपकार करने वाले सैंकड़ों लोग दुनिया में हैं, परन्तु अपना आत्म-कल्याण करते हुए प्राणिमात्र के कल्याण की भावना रखने वाले सुगुरु अल्प हैं । परम श्रद्धेय श्री गौतम मुनि जी म.सा. फरमाते हैं "जो बात दवा से नहीं होती, वो बात हवा से होती है। काबिले गुरु मिले तो हर बात खुदा से होती है।" जीव को गुरु की अनिवार्यता समझ आने लगती है। गुरु के बिना अहंकार अभिमान, क्रोध आदि कषाय राग-द्वेष आदि विभावों का विसर्जन संभव नहीं है। परम श्रद्धेय श्री प्रमोदमुनि जी म.सा. फरमाते हैं “निश्चय कृपा गुरुदेव की, भव जल से पार लगाती है, हारे थके निराश में पुरुषार्थ पूर्ण जगाती है, लक्ष्य की पहचान व दृढ़ता अपूर्व दिलाती है, अन्तभव अर्णव करा मुक्तिपुरी पहुँचाती है।" Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003844
Book TitleJinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Others
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2011
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size8 MB
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