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__ गुरु-गुरण लिखा न जाय
श्री अशोककुमार जैन
आचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा० का व्यक्तित्ब बहुआयामी था। नियमित मौन साधना, अप्रमत्त जीवन, ज्ञान और क्रिया का समन्वय, कथनी और करनी में एकरूपता, समस्त प्राणियों के प्रति करुणा, सामायिक-स्वाध्याय की प्रेरणा देना एवं प्रत्येक जन के जीवन-निर्माण हेतु आप सतत प्रयत्नशील रहते थे । आप पर-निन्दा, विकथा एवं प्रमाद से हमेशा कोसों दूर रहते थे व अप्रमत्त भाव से साधना में मस्त रहते थे।
आचार्य श्री अनुशासन प्रिय थे । स्वयं गुरु-चरणों के कठोर अनुशासन में रहकर शिक्षा और संस्कारों की विधि प्राप्त की थी। इसलिये एक सैनिक की भांति न केवल स्वयं अनुशासित जीवन जीते थे वरन् दूसरों को भी अनुशासन में रहकर कार्य करने की प्रेरणा देते थे । आपका जीवन वाणी और व्यवहार से अनुशासन की जीती जागती तस्वीर था । आप जब भी मौन में बैठते थे, पूर्ण रूप से मनोनिग्रह रखते थे। आप अप्रमत्त भाव से साधु-मर्यादा का आजीवन पालन करते रहे।
आचार्य श्री करुणा व दया के सागर थे । एक प्रसंग है। एक बार आप विहार कर रहे थे । एक काला सर्प लोगों को दिखाई दिया। उस सर्प को देखकर विहार में चलने वाले लोग उसको मारने के लिए चिल्लाने लगे । आचार्य श्री से यह सब देखा नहीं गया । आप उस सर्प के पास गये । उसे मंगलपाठ सुनाया और अपनी झोली में ले लिया। झोली में लेकर दूर जंगल में छोड़ दिया। मानव मात्र पर ही नहीं वरन् मूक प्राणियों के प्रति भी आपका हमेशा करुणा व दया का भाव रहता था।
प्राचार्य श्री जीवन-पर्यन्त पूर्ण अहिंसक बने रहे । आप विकटतम परिस्थितियों में भी ऐसी दवाइयाँ लेना पसन्द नहीं करते थे जिससे प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष रूप से हिंसा होती हो । आपकी हमेशा प्रबल भावना रहती थी कि साधु-साध्वी एक्युप्रेशर पद्धति से उपचार करावें । आप सूक्ष्म से सूक्ष्म जीव की हिंसा से बचते थे । आज के भौतिकवादी व वैज्ञानिक युग में भी आपने अपने प्रवचनों में कभी भी माइक का प्रयोग नहीं किया क्योंकि इससे वायुकाय एवं तेजस्काय के जीवों की हिंसा होती है।
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