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• प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा.
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की साधना सामायिक में निहित है । इस प्रकार एक सामायिक क्रिया से सभी प्रकार की साधना हो जाती है। यह जानकार ही आचार्य श्री ने सामायिक पर अधिक बल देते हुए सामायिक-साधना को प्रात्म-कल्याण के लिए महत्त्वपूर्ण बताया ।
स्वाध्याय का यद्यपि सरल अर्थ है स्वयं अध्ययन करना । नवकार मंत्र की एक माला फेरने में भी १०८ गाथाओं का स्वाध्याय हो जाता है क्योंकि पूर्ण नवकार मंत्र एक गाथा है । आचार्य श्री ने स्वाध्याय संघों की स्थापनाओं के द्वारा श्रावकों में धार्मिक ग्रंथों के पठन-पाठन, अध्ययन, चिंतन व मनन का प्रचार किया। साथ ही स्वाध्याय शिविरों के माध्यम से ऐसे श्रावक तैयार करवाये जो शास्त्र व धर्म का ज्ञान प्राप्त करके उन क्षेत्रों में पर्युषण पर्व के दिनों में जाकर धर्माराधना करावें जहाँ संत-सतियों के चातुर्मास नहीं होने से धर्मज्ञानसरिता सूख रही हो।
प्राचार्य श्री ने सामायिक व स्वाध्याय के प्रचार-प्रसार के लिए ही स्थानस्थान पर स्थानीय श्रावकों को प्रेरित किया और इसी उद्देश्य से आपकी प्रेरणा से आज समाज में पूरे देश में कई संस्थाएँ कार्यरत हैं। कुछ संस्थाएँ अखिल भारतीय स्तर की हैं जिनके द्वारा श्रावकों, श्राविकाओं, युवकों, महिलाओं तथा बच्चों में धार्मिक भावनाएँ जागृत होकर धर्म की प्रभावना बढ़ती है। आपके सत्प्रयास व प्रेरणा से कुछ पत्रिकाओं का नियमित प्रकाशन होता है जिनमें 'जिनवाणी', 'स्वाध्याय शिक्षा' प्रमुख हैं। इनके द्वारा दूर-दूर के पाठकों तक शास्त्र की वाणी व धार्मिक संदेश पहँचाये जाते हैं। विभिन्न स्थानों पर धार्मिक पाठशालाओं और स्वाध्याय संघों की स्थापना से जैन बालकों और युवकों में धार्मिक शिक्षण के साथ ही जैन शास्त्रों का प्रचार-प्रसार घर-घर हो रहा है ।
प्राचार्य श्री स्वयं एक महान साधक थे। उन्होंने अपनी ज्ञान-साधना में रत रहकर अल्पायु से ही गुरुवर आचार्य श्री शोभाचन्द्रजी के निर्देशन में कई आगमों व शास्त्रों का अध्ययन किया । आप मौन साधक, महान् चिंतक व साधकों के प्रेरक थे । आपने अपनी ज्ञान-गंगा जन-जन के उपयोगार्थ प्रवाहित की। साहित्य-सर्जन व इतिहास-निर्माण जैसे कठोर कार्य में अपना योगदान दिया ।
आजीवन साधनारत रहते हुए जन-कल्याण की भावना ही नहीं प्राणी मात्र के कल्याण की भावना आपके हृदय में द्रवीभूत होती रहती थी । जीवन के अन्तिम प्रहर में शारीरिक दुर्वलता होने पर भी आप अपने शिष्यों को कष्ट देना नहीं चाहते थे । आपकी प्रबल इच्छा पद-यात्रा की ही रहती थी।
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