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________________ • प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा. दिन चर्चा के प्रसंग में मैंने प्राचार्य श्री से पूछा-जैन इतिहास लिखने के पीछे आपश्री का क्या दृष्टिकोण है ? प्राचार्य श्री ने बड़ा सटीक उत्तर दिया- "इतिहास तृतीय चक्षु है । दो चक्षु सामने हैं । ये सामने (आगे) का देखते हैं, किन्तु इतिहास चक्षु-अतीत को भी देखता है और अनागत को भी........अतीत का ज्ञान नहीं होगा तो भविष्य को उज्ज्वल बनाने का संकल्प कैसे जगेगा? जैन समाज ने अपने गौरवमय अतीत (इतिहास) की गाथाएँ तो गाई हैं, परन्तु इस दीर्घ अन्तराल में जो कुछ घटित हुआ, वह उसके गौरव को क्षति पहुँचाने वाला ही अधिक हुआ । जब तक इतिहास का कृष्ण-पक्ष और शुक्ल पक्ष-तुलनात्मक रूप में सामने नहीं आयेगा तब तक भविष्य का शुक्ल पक्ष कैसे देखा जायेगा ? मैंने व मेरे अनेक सहयोगियों ने श्रम करके तटस्थ भाव से इतिहास का दर्पण तैयार किया है, इसमें जहाँ-जहाँ जब-जब जैनत्व गरिमा-मंडित हुआ है, उसका वर्णन भी किया है और जब-जब जहाँ-जहाँ जैनत्व को, श्रमणत्व को क्षति हुई है, उन सब पक्षों पर स्पष्ट चिन्तन किया गया है ताकि आने वाली पीढ़ी उन आरोह-अवरोह से, बचकर अपनी गरिमा को अधिक निखार सके, स्वयं को बलवान बना सके। इसलिए मैं कहता हूँ-इतिहास का तृतीय नेत्र खुलना जरूरी है........। आचार्य श्री ने अत्यन्त दीर्घकालीन गहन श्रम व अनुसन्धान करके 'जैन धर्म का मौलिक इतिहास' के चार भाग तैयार किये हैं। यह उनकी दीर्घ दृष्टि का, भविष्य दृष्टि का एक ज्वलन्त प्रमाण है। इतिहासकार की तटस्थ परख और अनुसंधान की गहरी निष्ठा-प्राचार्य श्री की अद्वितीय थी। आने वाली शताब्दियों में जैन समाज उनके महतोमहीयान (योगदान) से निश्चित ही लाभान्वित होगा। आचार्य श्री की दीर्घदृष्टि और चिन्तन की समग्रता का दूसरा उदाहरण है "स्वाध्याय एवं सामायिक प्रवृत्ति का पुनरुज्जीवन !" कहा गया है-नधर्मो धार्मिकेबिना'-धार्मिकों के बिना धर्म जीवित नहीं रह सकता । आज संसार के सभी धर्म-सम्प्रदायों की लगभग यह स्थिति है कि उनमें से धार्मिकता रूप-प्राचार-बल समाप्त होता जा रहा है और धर्म को आडम्बर एवं प्रदर्शनों में उछाला जा रहा है। जीवन में धर्म-बल की कमी हो रही है और धर्म का कोलाहल बढ़ता जा रहा है । इस स्थिति में कोई भी धर्मसम्प्रदाय अधिक दिन तक जीवित नहीं रह सकता। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003843
Book TitleJinvani Special issue on Acharya Hastimalji Vyaktitva evam Krutitva Visheshank 1992
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1992
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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