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• व्यक्तित्व एवं कृतित्व
सही है, नितान्त अक्षरशः सत्य । जीवन की तमिस्रा में तंद्रिल अवस्था में वह महान् गायक अपनी अमर बीन बजा गया, भर गया हमारे तमपूर्ण तुषारमय जीवन में नवीन राग और जल उठे प्राणों में बुझे हुए दीपक । दीप्तिमय हो गया परिवेश, और पर्यावरण । पर उस अमर बीन-रागिनी की समाप्ति पर-क्या वही 'तममय तुषारमय जीवन का कोना कोना-पुन: जड़ नहीं हो गया है ? यदि हुआ है तो क्यों, किसलिए? आज भी वह दिव्य राग देवलोक से गुंजरित हो रही है । पर क्या हमारे कर्ण उसे सुन पा रहे हैं ? क्या वह अनहद नाद आज पाहत तो नहीं है हमारे मिथ्याचार से, कृत्रिम अहं से, दूषित आचारविचार से ? हम भूल गये हैं महावीर को, भूल गये हैं जिन शासन की महान् परम्परा को, कहाँ याद है गौतम, बुद्ध, ईसा, मुहम्मद, नानक, गांधी, अथवा एक शायर के शब्दों में-'किसे याद है इस बस्ती का वीरां होना।'
आकाशवाणी का गीत, गायन समाप्त हो गया और मेरी विचार-शृंखला भी मुड़ गयी। हाँ, तो आचार्य श्री की प्रथम पुण्य तिथि निकट आ रही है । वे बता गये थे 'कर्म-निबद्धो जीवः परिभ्रमन् यातनां भुक्ते' (सुबोध रत्नाकर) कर्म-पाश में बंधे हुए हम दुख भोग रहे हैं । किस साहस से मनाएँ उनकी पुण्य तिथि ! क्या इस पर्व पर यह आवश्यक नहीं है कि हम 'पहावन्तं नि गिराहामि सुघ्च रस्सि समाहियं' । इस मन रूप अश्व को ज्ञान की लगाम आवश्यक है, जिससे यह इधर-उधर न हो । यही तो उनका सामायिक-संदेश भी था । कृष्ण मूर्ति कहा करते थे 'मनोतीत बनो-मन को अमन करो।' जो मन में छिपा है, उसे पकड़ो, तब शुद्ध भावना जाग्रत होगी, वहीं मनुष्य 'द्वि भुजः परमेश्वर बनेगा। वहीं 'सैवंतो विण सेवइ' भोगते हुए भी नहीं भोगेगा, नहीं भोगते हुए भी भोगेगा। (आचार्य कुंदकुंद) । परमाचार्य हस्ती भी तो यही बताते थे 'सावद्य योग विरतिः सामायिकम् वीतराग भाव की साधना के लिए सावध त्याग रूप का आराधन सामायिक है । यही जीवन का उपयोग भी है-'जीवो उवयोग लक्खणो।'
जब मैंने समाधि मरण काल में प्राचार्य श्री के दर्शन किये थे—गुरुदेव की परिक्रमा की थी-तिक्खुतो का पाठ किया था, मुझे लगा कि जीवन एक बिन्दु पर आकर कितना निर्मूल्य हो जाता है-जब जीवन निर्मूल्य होता है तब मृत्यु का भी क्या महत्त्व रहेगा-वह भी निर्मूल्य होगी। मृत्यु का उतना ही मूल्य और महत्त्व है, जितना जीवन से हम उसमें डालते हैं। जीवन को बचाने की कामना ही मृत्यु से बचने की कामना होती है। यही सत्य का ध्र व केन्द्र हैजिससे अमृत का द्वार खुलता है-जिजीविषा, सिसृक्षा, बिजीगिषा-माया,
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